सोमवार, 15 अगस्त 2011

आधुनिक जयचंदों को पहचानें!

गुलाम नबी फई के भारतीय हमप्याले, हमनिवाले हैरत जता रहे हैं। इस अंदाज में, कि अरे! हम तो जानते ही नहीं थे कि वह आई.एस.आई. का आदमी था। राजेन्द्र सच्चर ने कुलदीप नैयर को भी साथ जोड़ते सफाई दी है कि फई के निमंत्रण पर अमेरिका जाकर उसकी मेहमाननवाजी का लुत्फ लेते उन्हें हकीकत मालूम न थी। यह भोलापन नकली है! उन्हें बखूबी मालूम था कि फई के आयोजनों में कश्मीर मुद्दे पर केवल पाकिस्तान-समर्थक बातें बोली जाती थीं। उसमें कश्मीरी हिन्दुओं के सफाए पर एक शब्द नहीं कहा गया। उसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में मानवाधिकारों की खुली दुर्दशा का कभी जिक्र तक न होता था।

इसलिए, सच्चर बन रहे हैं। यदि अमेरिकी एफ.बी.आई. ने फई को न पकड़ा होता तो, सचाई बताने पर भी इन्हें शर्म नही आती। क्योंकि जो भारतीय फई के न्योते पर अमेरिका जाकर बयानबाजी करते थे, वे यहाँ भी वही बोलते रहे हैं। सच्चर ने यहीं सभा-सेमिनारों में कहा है, कि “कश्मीर कब से भारत का अंग हो गया?”। इन्हीं विचारों के कारण सच्चर, नैयर जैसे लोगों को आई.एस.आई. और फई ने चुना था।

अरुंधती राय, गौतम नवलखा और प्रफुल्ल बिदवई भी फई के वैसे ही हमख्याल हैं। ‘इंडियन स्टेट’ को चुन-चुन कर गाली देना इनका नियमित कार्य है। भारत कोई लोकतांत्रिक या संप्रभु देश है, यह सुनते ही इनकी जबान बिगड़ जाती जाती है। किन्तु अपने देश की स्थिति से मतभेद रखना एक बात है, किसी दुश्मन देश से पैसे लेकर, उसके मंच पर बोलना दूसरी चीज है। यह सीधे-सीधे गद्दारी मानी जाती है। भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में। यही भाँप कर सच्चर अब भोले बन रहे हैं।

सच्चर, नैयर, राय, नवलखा, बिदवई, कमल मित्र चिनाय आदि महानुभाव यह कहकर बच नहीं सकते कि कश्मीर पर उनके विचार यदि पाकिस्तानियों से मिलते हैं तो वे दोषी नहीं। यह तभी तक ठीक है, जब तक वे विदेश जाकर अपनी बातें कहने के लिए पाकिस्तानी धन का उपयोग नहीं करते। किन्तु वे यही करते रहे हैं। इन मँहगी यात्राओं का खर्च वे स्वयं नहीं उठाते थे, इतना तो उन्हें मालूम था! तब वह कौन देता था, यह जानना उनकी ही जिम्मेदारी थी। ‘नो फ्री लंचेज’ का मुहावरा तो जगजाहिर है। उतना ही जगजाहिर यह भी कि आई.एस.आई. कोई अपने लेटर-हेड पर तो किसी को नहीं न्योतती। उसके मुखौटे मंच का आतिथ्य लेना यूजफुल ईडीयट्स बनना ही है। यदि वास्तविकता जानते हुए उसमें भाग लेते हो, जैसा फई का मंच था, तब ऐसे भारतीय जयचंद की ही भूमिका निभा रहे हैं।

ऐसे लोग अपने विचारों की पाकिस्तानी-इस्लामी निकटता से बखूबी परिचित हैं। इस बात से भी कि क्यों उन्हीं को बार-बार पाकिस्तान या यूरोप, अमेरिका आकर बोलने का निमंत्रण मिलता है। अब तक ये स्वयं को ‘विद्रोही’ या ‘डिसेंटर’ की भूमिका में पेश करते थे। फई के खुलासे के बाद सभी जयचंद की भूमिका में दिख रहे हैं। इसीलिए, अब बहाने बनाए जा रहे हैं।

मगर बहाने झूठे हैं, क्योंकि फई और उसकी कश्मीरी अमेरिकी काउंसिल (के.ए.सी.) की वास्तविकता एकदम जाहिर थी। के.ए.सी. 1990 में बनी, जब कश्मीर में नए सिरे से उपद्रव शुरू हुआ। इधर प्रायोजित आतंकवाद और उधर प्रायोजित भारत-निंदा, दोनों आई.एस.आई. संचालित थे, यह अमेरिकी राजनयिक बखूबी जानते थे। बंगलादेश में अमेरिकी राजदूत तथा भारत, पाकिस्तान दूतावासों में भी उच्च पदों पर रहे हावर्ड शैफर ने अभी लिखा है कि फई की गिरफ्तारी पर दक्षिण एसिया से जुड़े अमरीकी राजनयिकों को आश्चर्य भी हुआ। कि उसके आई.एस.आई. का एजेंट होने की बात तो बरसों से स्पष्ट है।

यह भारत में भी स्पष्ट था। 1997 में ही भारत की केंद्रीय जाँच ब्यूरो ने के.ए.सी. के आई.एस.आई. संचालित होने की बात आधिकारिक रूप से बताई थी। हवाला गतिविधियों की जाँच में ब्यूरो ने पाया कि फई की के.ए.सी. कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी संगठन हिज-बुल-मुजाहिदीन को पैसे भेजती रही है। इस ने कश्मीरी अलगाववादी नेता अली शाह गिलानी, जो स्वयं को खुले-तौर पर पाकिस्तानी कहते हैं, को भी अवैध तरीके से धन पहुँचाया है। यह तथ्य केंद्रीय जाँच ब्यूरो की औपचारिक चार्ज-शीट में दर्ज थी।

यह बातें न केवल अखबारों, बल्कि वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी की पुस्तक ‘द लॉस्ट रेबेलियनः कश्मीर इन नाइन्टीज’ (पेंग्विन, 1999) में भी प्रकाशित है। मनोज जोशी टाइम्स ऑफ इंडिया के राजनीतिक संपादक और हिन्दुस्तान टाइम्स के वरिष्ठ संपादक रह चुके हैं, तथा लंदन, वाशिंगटन से लंबे समय तक रिपोर्टिंग भी करते रहे हैं। अतः फई और के.ए.सी. की वास्तविकता स्वयं भारत के मीडिया में प्रमाणित रूप से आई हुई थी।

अतः सच्चर, नैयर, चिनॉय, नवलखा जैसे लोगों की यह भंगिमा झूठी है कि उन्हें मालूम न था कि के.ए.सी. के आयोजन आई.एस.आई. संचालित हैं। वैसे, सच्चर साहब पूर्व-न्यायाधीश होने के कारण बेहतर जानते हैं कि किसी अपराधी की असलियत से अनजान रहते भी उसके धंधे में मददगार होना भी कानूनन जुर्म होता है। सच्चर, राय, चिनाय आदि लोग अमेरिका में आई.एस.आई. के भारत-विरोधी अभियानों में शामिल रहे हैं जिसके लिए उन्होंने फीस भी ली। वह फीस बिजनेस क्लास के हवाई टिकट, पाँच सितारा होटलों में आतिथ्य तथा कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दूसरे जरूरी खर्चों के रूप में नकद भी मिली है। अतः कोई न्यायालय एक पूर्व-न्यायाधीश को फई की हकीकत से ‘अनजान’ होने पर बेकसूर नहीं ठहरा सकता। सच्चर साहब भोले न बनें। फई की असलियत पर हैरानी जताना बनावटी भंगिमा है। आई.एस.आई. के पैसे से अमेरिका सैर करने की बात खुलने की लज्जा से बचने की कोशिश।

यह हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसे ही लोगों के हाथों भारत में नई-नई सांप्रदायिक नीतियाँ बनाई और लागू की जा रही हैं। फई का खुलासा अब ‘सच्चर-समिति’ की रिपोर्ट को भी नई तरह से देखने के लिए मजबूर करता है। उसमें भी ‘अनजान’ रहते हुए गलत तथ्य और देशघाती अनुशंसाएं नहीं हैं, इसकी क्या गारंटी है? बल्कि यही संभावना अधिक है कि जिस जिहादी भाव से सच्चर महोदय अमेरिका जाकर भारत-विरोधी प्रचार करते थे, उसी भावना से इस रिपोर्ट में सांप्रदायिक कुतर्क भी रखे गए हैं। आखिर फर्म एक ही है!

इसलिए चिंतनीय तो अब यह होना चाहिए कि इन महानुभावों ने जितने अभियानों का नेतृत्व किया, उन सब पर ऐसे कलुषित संबंधों की छाप है। यह लोग देश के विविध दुश्मनों से ईनाम लेकर यहाँ वैसे काम करते रहे हैं, जिनसे जो उन्हें बारं-बार बाहरी ईनाम मिलते रहे हैं। यह कोई संयोग नहीं है।

जो महानुभाव भारतीय सेना द्वारा ‘कश्मीरियों के मानवाधिकार उल्लंघन’ का दुष्प्रचार कर अमेरिका में आई.एस.आई. षडयंत्र को बल पहुँचा रहे थे, वही लोग अमेरिका में ही गुजरात सरकार को भी ‘फासिस्ट’ बताने जाते थे। यही राय, चिनॉय, बिदवई, पाटकर, आदि नरेंद्र मोदी विरोधी अभियान के भी सक्रिय एक्टिविस्ट रहे हैं। यही यहाँ नक्सल-समर्थक अंतर्राष्ट्रीय अभियान के भी अगुआ हैं। इन्हीं ने डाँग, झाबुआ, कंधमाल, आदि प्रसंगों में विदेशी मिशनरियों द्वारा चलाई जा रही अवैध धर्मांतरण गतिविधियों का भी उत्साह से बचाव किया है। ठीक यही लोग भारत के परमाणु कार्यक्रम के भी उग्र-विरोधी हैं। जबकि इन्हें पाकिस्तान या चीन के आक्रामक परमाणु कार्यक्रमों के विरुद्ध भी एक शब्द बोलते नहीं सुना गया। किन्तु दुनिया भर में ‘पीस एक्टिविस्ट’ के रूप में घूम-घूम कर भारत-निंदा करना, तथा विविध मिशनरी संगठनों से पुरस्कार लेना, ठीक इन्हीं बुद्धिजीवियों का काम है जो फई के हम-प्याला बन कर अमेरिका में भारत-विरोधी प्रचार में शरीक होते थे।

केवल पिछले दस-बारह सालों की इनकी सभी बयानबाजियाँ, गतिविधियाँ, विदेश यात्राएं और पुरस्कारों को एकत्र करें तो तस्वीर साफ दिखेगी। कश्मीर पर पाकिस्तानी ‘सेमिनारों’ में भागीदारी करते हुए भारतीय सेना पर लांछन + नरेंद्र मोदी विरोध + भारत में अवैध धर्मांतरण गतिविधियों का बचाव + भारतीय परमाणु कार्यक्रम का विरोध + माओवादियों के पक्ष में अभियान, यह पाँचों कार्यक्रमों में यही लोग बार-बार कैसे नजर आ रहे हैं? इन में समान तत्व क्या है?

इतने अंतर्राष्ट्रीय अभियानों में दसियों साल से लगे हुए लोग जब यह कहें कि इन्हें मालूम न था कि इन्हें निमंत्रण, प्रोत्साहन और पुरस्कार देने वाले कौन हैं, तो किसी हाल में भरोसा नहीं करना चाहिए। ये यूजफुल ईडीयट्स नहीं, बल्कि आधुनिक जयचंद हैं जो अच्छी तरह जानते हैं कि आई.एस.आई. से लेकर पोप की धन-कुबेर अंतर्राष्ट्रीय चर्च नौकरशाही उन्हीं पर क्यों मेहरबान है!

नया रंगरूट पत्रकार भी चार दिन में समझ लेगा कि विविध अभियानों में एक ही तरह के लोगों की भागीदारी संयोग नहीं। यह भी समझते उसे देर न लगेगी कि इन सभी कार्यों की राजनीतिक प्रेरणा और तर्क में एक संगति है। उसमें किसी न किसी रूप में हिन्दू-विरोध, भारतीय संविधान की हेठी तथा विदेशी ताकतों की चाह के मुताबिक भारत सरकार पर दबाव डालना शामिल है। यह सब बाहरी, अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी एजेंडे के कार्यक्रम हैं। इसे देखते-समझते हुए राय, चिनाय, सच्चर, नवलखा जैसे लोग अपनी वैचारिक सनक तथा विदेशी पुरस्कार, सैर-सपाटे के लोभ आदि से उनमें शामिल होते रहे हैं।

इसका परिणाम भारत के लिए अत्यंत घातक रहा है। वर्तमान युग में अंतर्राष्ट्रीय प्रचार की ताकत देखते हुए, इन लोगों ने आई.एस.आई. ही नहीं, विविध जिहादी, माओवादी संगठनों को नैतिक, भौतिक बल पहुँचाया है। इससे कश्मीर समेत भारत के विविध हिस्सों में निर्दोष लोगों का खून बहता रहा और सुरक्षा में लगे असंख्य सैनिकों की जानें गईं। अपनी मूर्खता या स्वार्थ में विदेशी शत्रुओं के हाथों में खेलने वाले लोगों को महत्वपूर्ण पदों से हटाना जरूरी है।

फई की गिरफ्तारी ने अवसर दिया है कि हम ऐसे ‘अनजान’ जयचंदों को जान लें, जो अपनी झक में बाहरी शत्रुओं को जानते-बूझते भी मदद पहुँचाते हैं, ताकि किसी मोदी या चिदंबरम को पीटा जा सके। अतएव फई के हम-निवाले, हम-प्याले सच्चर और मुसलमानों पर रिपोर्ट लिखने वाले सच्चर में भेद करना आत्मघाती मूर्खता होगी।

फई प्रसंग से साफ हो जाना चाहिए, कि सच्चर एंड कंपनी को भारत के दुश्मनों से देश-द्रोह की फेलोशिप लेने में कोई हिचक नहीं। जानते-बूझते और अनजाने, दोनों स्थितियों में। इसलिए ऐसे बुद्धिजीवी जयचंदी और यूजफुल ईडीयट्स, दोनों किस्म के हैं। दोनों से बचने की जरूरत है। क्योंकि अंततः उनके कारनामों का फल हमें वही मिलेगा, जो पंजाब, बंगाल, असम या कश्मीर में होता रहा है। विभाजन, कब्जा और गैर-मुस्लिमों का सफाया। भारत के विविध शत्रुओं का यही वह लक्ष्य है जिसके लिए आधुनिक जयचंदों या उपयोगी मूर्खों का उपयोग किया जा रहा है।

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