रविवार, 28 अगस्त 2011

वंदे मातरम और इस्लाम

घटना 30 दिसंबर 1939 की है। पांडिचेरी में योगी श्रीअरविन्द संध्याकाल अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। तभी किसी ने नए समाचारों की चर्चा करते कहा, “कुछ लोगों को ‘वंदे मातरम’ के राष्ट्रीय गान होने में आपत्ति है और कुछ कांग्रेसी उस के कुछ पदों को निकाल देने के पक्ष में हैं।” इस पर श्रीअरविन्द ने टिप्पणी की, “उस स्थिति में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति छोड़ देनी चाहिए।” शिष्य ने यह भी बताया कि वंदे-मातरम गान का विरोध क्यों है, “तर्क यह है कि इस गान में दुर्गा आदि हिन्दू देवी-देवताओं की बात कही गई है जो मुसलमानों के लिए अप्रिय है।”

तब श्रीअरविन्द ने समझाया, “लेकिन यह धार्मिक गान नहीं है। यह एक राष्ट्रीय गान है और राष्ट्रीयता के भारतीय स्वरूप में स्वभावतः हिन्दू दृष्टि रहेगी। अगर इसे यहाँ स्थान न मिल सके तो हिन्दुओं से कहा जा सकता है कि वे अपनी संस्कृति छोड़ दें। … हिन्दू अपने भगवान की पूजा क्यों न करें? अन्यथा हिन्दुओं को या तो इस्लाम स्वीकार कर लेना चाहिए या यूरोपीय संस्कृति या फिर नास्तिक बन जाना चाहिए।”

आज उस प्रसंग से क्या कोई शिक्षा मिलती है? यह भी जान लें कि उस समय उठे विरोध के बाद कांग्रेस ने इस गीत का केवल पहला अंश गाने का निर्णय किया, ताकि ‘देवी-देवताओं’ संबंधी मुसलमानों की आपत्ति खत्म हो जाए। उस समय तक वंदे-मातरम गान अपने तीनों अंतरों समेत पूरा गाया जाता था। किन्तु इस्लामी आपत्ति को देखते हुए इस गीत के बाद वाले दो अंतरे गाना बंद कर दिया गया। इस से मुस्लिम नेता संतुष्ट हुए। किन्तु कुछ समय बीतने बाद कहा गया कि यह पूरा गीत ही आपत्तिजनक है। पुनः कांग्रेस द्वारा आपत्तियों को संतुष्ट करने का ही प्रयत्न किया जाता रहा। अंततः सारी आपत्तियों का एकमुश्त हल करने हेतु मुसलमानों का अलग देश ही बना दिया गया!

तब श्रीअरविन्द वाली बात ही फलीभूत हुई। कम से कम पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में लाखों हिन्दुओं को अपनी संस्कृति और धरती या प्राण तक छोड़ देने पड़े। जो इस्लाम कबूल कर जिए, उन्होंने तो संस्कृति छोड़ी ही। किन्तु समस्या खत्म नहीं हुई। शेष बचे भारत में (जो विभाजन के तर्क से केवल हिन्दुओं का देश होना था), कुछ ही समय बाद फिर से वही आपत्तियाँ शुरू हो गईं। और फिर वही तुष्टीकरण! इस बीच कश्मीर में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति, धरती और प्राण छोड़ देने पड़े। असम, बंगाल, केरल आदि के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी शनैः-शनैः वही हो रहा है। इस्लामी पक्ष से आपत्ति और हिन्दू पक्ष का खात्मा, यह ऐतिहासिक प्रक्रिया लगभग सौ साल से चल रही है। इस का अंत किस प्रकार होगा?

इस वृहत प्रश्न को ध्यान में रखकर पुनः वंदे-मातरम गान पर आएं। यह बंग-भंग (1905) के विरुद्ध आंदोलन के समय से ही भारतीय देशभक्तों का अनुपम गीत रहा है। इसे कई मुस्लिम भी गाते रहे हैं। पर यहाँ एक बात पहले स्पष्ट हो जानी चाहिए। कि मुस्लिम जनता और उनके राजनीतिक नेताओं में भेद करना जरूरी है।

मुस्लिम जनता तो अपने आप में हिन्दू जनता की तरह ही है। अपने अवलोकन से आश्वस्त होकर वह भी अच्छे और सचाई भरे लोगों, प्रयासों को समर्थन देती है – बशर्ते उसके नेता इसमें बाधा न डालें (जैसा बुखारी ने अभी शुरू किया)। इसीलिए तो रामलीला मैदान और देश भर में मुस्लिम भी अन्ना के पक्ष में बोल रहे हैं। किन्तु मुस्लिम नेता दूसरी चीज होते हैं। उनके लिए इस्लाम ही सब कुछ है। वे हर चीज को इस्लामी तान पर खींचने की जिद करते हैं, और इसके लिए हर दाँव लगाने से नहीं चूकते। इसलिए कई बार उनकी शिकायतें नकली होती हैं, वह किसी छिपे उद्देश्य का साधन होती हैं। इसी बात को न समझकर हिन्दू महानुभाव सदैव मूर्ख बनते रहे हैं। अयातुल्ला खुमैनी ने एक बार कहा भी था कि “पूरा इस्लाम ही राजनीति है”। अभी बुखारी साहब वही कर के दिखा रहे हैं।

इसलिए इस बात को दरकिनार नहीं करना चाहिए कि इस्लाम के नाम पर वन्दे-मातरम गान का सदैव विरोध भी होता रहा है। इमाम बुखारी ने कोई नई बात नहीं कही। अभी दो साल पहले ‘जमाते उलेमा ए हिन्द’ ने वन्दे-मातरम गाने के खिलाफ फतवा दिया था। इसलिए इस पर हिन्दुओं द्वारा सफाई देना बेकार है। अन्ना के सहयोगी उसी तरह बुखारी को मनाने गए हैं, जैसे उस जमाने में गाँधीजी करते थे। उसका क्या नतीजा रहा? पूरे इतिहास को याद करें।

इस्लामी सिद्धांत की दृष्टि से बुखारी गलत नहीं हैं। लेकिन जैसा राजनीति में होता है, इस गीत पर आपत्ति उठाने और स्थगित कर देने में राजनीतिक परिस्थितियों का तर्क अधिक चला है। इसीलिए अरविन्द केजरीवाल जैसे बुद्धिमान या श्रीश्रीरविशंकर जैसे संत निरर्थक प्रयास कर रहे हैं। वे बुखारी जैसे आपत्तिकर्ताओं को इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। यानी वह काम करना चाहते हैं जहाँ गाँधी जैसे सत्यनिष्ठ सेवक बुरी तरह विफल रहे। हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए। कि यह तर्क-वितर्क का मसला ही नहीं है।

भारत के निकट इतिहास में कई उदाहरण हैं – सर सैयद से लेकर मौलाना आजाद, अब्दुल बारी, शौकत अली, आदि – जिन्होंने राष्ट्रवाद, हिन्दू-मुस्लिम एकता, गो-हत्या, हिजरत और वतनपरस्ती पर समय-समय पर विपरीत मंतव्य दिए। तदनुरूप ऐसे या वैसे आवाहन किए। तब उन अंतर्विरोधी वक्तव्यों में इस्लामी सिद्धांत क्या था? अतः समझना चाहिए कि इस्लामी मामलों में फैसले देश-काल-राजनीति और शक्ति सापेक्ष होते रहे हैं। उसमें केवल सिद्धांत जैसी कोई चीज नहीं होती। इसीलिए उसे तर्क और सदभावना मात्र से तय करने की कोशिशें व्यर्थ है। गाँधीजी इसीलिए पिटे थे।

वंदे-मातरम गान या भारत माता की पूजा आदि चीजों पर कुरान, हदीस या सुन्ना को आधार बना कर समझाना वैसे भी अन्याय है। यह तो हर चीज के लिए इस्लाम को कसौटी मान लेना हुआ। विविध पंथों, विचारों को मानने वाली जनता के लिए किसी एक पंथ को ही आधार बनाकर किसी काम की परख गलत है। जिस प्रकार मुसलमानों को कोई काम करने या न करने के लिए ईसाइयत के निर्देश को आधार नहीं बनाया जा सकता, उसी तरह इस्लाम को कसौटी बनाकर ईसाइयों या हिन्दुओं को कुछ करने या न करने के लिए कहना भी अनुचित है।

वस्तुतः इस्लाम को आधार मान कर वंदे-मातरम गान की सफाई देना व्यवहार में विपरीत फलदायी होता रहा है। इस बहस में जाने से कट्टर इस्लामपंथी ही मजबूत होते हैं। यदि स्वामी रामदेव कहते हैं कि वंदे-मातरम में “मूर्ति-पूजा का कर्मकांड” नहीं, इसलिए मुसलमानों को विरोध नहीं करना चाहिए, तो इसका मतलब है कि वे मूर्ति-पूजा को गलत मान रहे हैं। यह कौन सी बात हुई? किस आधार पर मूर्ति-पूजा गलत और काबे को सिजदा करना सही है? मगर यदि आप ऐसा ही मान लेते हैं, तब तो बात बस इतनी बचती है कि इस्लाम में क्या जायज है, क्या नहीं। उसका फैसला कोई मुफ्ती या ईमाम करेंगे कि एक हिन्दू संत?

दरअसल वंदे-मातरम विरोध कोई स्वतंत्र मुद्दा नहीं। यह इस्लाम और देश-प्रेम के संबंध से जुड़ा हुआ है। इस पर तरह-तरह की दलीलें जरूर रही। किंतु इस पर मुस्लिम चिंतकों में मूलतः कोई गंभीर मतभेद नहीं है। इस्लाम में कौम या वतन का सवाल हिजरत, दारुल-हरब तथा दारुल-इस्लाम की बुनियादी धारणाओं से अभिन्न है। हमारे देश में इसका एक बार फैसला तो 1947 में ही हो चुका। इस्लामी नेताओं और मुस्लिम जनमत ने देश नहीं, बल्कि इस्लाम को तवज्जो दी। तब से इस्लामी चिंतन में तो कुछ नहीं बदला। अतः यदि हम उस फैसले की सीख भुला कर फिर उसी कवायद में लगते हैं तो यह फिर उसी दिशा में जाएगा।

कड़वी सच्चाइयों से कतरा कर हिन्दू अपना, देश का या मुसलमानों का भी भला नहीं कर सकेंगे। याद रखना होगा कि कम्युनिज्म की तरह इस्लाम भी अंतर्राष्ट्रीय-राजनीतिक मतवाद है जिस में ‘इस्लाम ही सर्वस्व’ के सामने परिवार, समाज या देश किसी भी नाम पर एकता को कुफ्र माना गया। इसीलिए शाह वलीउल्लाह, सैयद बरेलवी, सर सैयद से लेकर मौलाना हाली, मौदूदी, सर इकबाल, मौलाना आजाद, मुह्म्मद अली, शौकत अली और जिन्ना तक रहनुमाओं की पूरी श्रृंखला ने भारतीय कौम या भारतीय समाज जैसी चीज को सिरे से खारिज किया था। उनके लिए दुनिया भर के मुसलमानों की उम्मत और खलीफत ही केंद्रीय चिंता थी।

अल्लामा इकबाल ने देश-प्रेम को उसूलन गलत ठहराया था, “इन ताजा खुदाओं में सब से बड़ा वतन है। जो पैरहन है उस का, वो मजहब का कफन है”। यानी वतन-परस्ती जो माँगती है, वह इस्लाम के लिए मौत समान है। इसलिए उसे हेच बताते हुए इकबाल कहते हैं, “कौम मजहब से है; मजहब जो नहीं, तुम भी नहीं। जज्बे बाहम जो नहीं, महफिले अंजुम भी नहीं” । उन्होंने देश-भक्ति को बुतपरस्ती का ही एक रूप बताया जिससे इस्लाम को गहरी घृणा है। इसलिए उनका कौल था, “मुस्लिम हैं हम / वतन है सारा जहाँ हमारा”। इसलिए वंदे-मातरम पर उलेमा के फतवे से लेकर मौलाना बुखारी की आपत्ति तक में कोई नई बात नहीं। इस्लाम को कसौटी मानें तो उसमें देश-प्रेम की कोई औकात नहीं।

इसलिए, समस्या बुखारी साहब या जमाते-इस्लामी के नेता या देवबंद नहीं है। समस्या वह मजहबी विचारधारा है जिससे वे निर्देशित होते हैं। जो देश से बढ़कर उम्मत को मानती है। पर हमारे नेता या बुद्धिजीवी उस विचारधारा से नहीं उलझते। उलटे, कन्नी कटाकर इस्लामी निर्देशों की ही सुंदर व्याख्या ढूँढने लगते हैं। यानी जो समस्या का कारण है उसे ही कसौटी बना लेते हैं। कि इस्लाम में ये नहीं, वो है। इस कवायद से उलटा परिणाम होना ही है। उलेमा का अपने अंध-विश्वास पर भरोसा और बढ़ जाता है कि इस्लामी हुक्म देश, समाज, मानवता आदि हर चीज से ऊपर हैं। इतना ऊपर है कि दूसरे भी यह मानते हैं। इसी विन्दु पर गाँधी जी से लेकर केजरीवाल जी तक गलती करते रहे हैं। जिसका खमियाजा हिन्दुओं को भुगतना पड़ता रहा है।

गलती यह है कि जिस विचार से लड़ाई होनी चाहिए, उसी को सिरोपा चढ़ाया जाने लगता है। तब सामान्य मुस्लिम भी विवेकशील चिंतन करने के लिए कैसे प्रेरित होंगे, जब हम ने एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी विचार से लड़ने के बजाए उस के समक्ष श्रद्धा-नत रहने की नीति बना रखी है? सच तो यह है कि ऐसा करके हम ने भारतीय मुसलमानों को इस्लाम के मजहबी-राजनीतिक अंतर्राष्ट्रीयतावाद के अधीन फँसे रहने के लिए विवश छोड़ दिया है। वे विश्व कम्युनिज्म की तरह विश्व खलीफत के राजनीतिक सपनों में उलझाए जाते हैं। इसे हजारों विवेकशील, देशभक्त, उदार मुसलमान भी नहीं रोक पाते। उनकी मजहबी किताबें उनकी मदद नहीं करतीं। वह केवल बुखारियों की ही करती हैं।

यह संयोग नहीं है कि मुसलमानों में देशभक्त, उदार, मानवतावादी लेखक, कवि या नेता इस्लाम की कमोबेश उपेक्षा कर के ही वैसे हो पाते हैं। गालिब ने भी अपने को ‘आधा मुसलमान’ ही कहा था। इसीलिए उनकी बातों का असर भी मुस्लिम समुदाय पर नहीं होता। डॉ. भीम राव अंबेदकर की ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’, मुशीर उल हक की ‘इस्लाम इन सेक्यूलर इंडिया ’, जीनत कौसर की ‘इस्लाम एंड नेशनलिज्म’ अथवा शबीर अहमद व आबिद करीम की ‘द रूट्स ऑफ नेशनलिज्म इन द मुस्लिम वर्ल्ड’ आदि पुस्तकों के अध्ययन से इस कड़वी सचाई को समझा जा सकता है।

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आम मुसलमानों में उदार लेखकों, नेताओं की नहीं चलती। खुद जिन्ना जैसे आधुनिक, सेवाधर्मी, लोकतांत्रिक, तेज-तर्रार नेता भी मुसलमानों के बेताज बादशाह तभी बने जब उन्होंने इस्लामी लफ्फाजी अपनाई। जबकि निजी जीवन में उन का इस्लाम से कोई लेना-देना न था। उलटे जिन्ना का रहन-सहन, खान-पान, आदि सब कुछ इस्लामी निर्देशों के विपरीत था। जबकि पूरे इस्लामी तरीके से जीने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान मुसलमानों के मान्य नेता न हो सके, क्योंकि वे इस्लामी माँगे नहीं कर रहे थे। यह अंतर ध्यान देने योग्य है।

अतः जैसे उस जमाने में बादशाह खान जैसे नेता आम मुसलमानों को प्रभावित नहीं कर पाए थे, वैसे ही आज हमारे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम या सलमान खुर्शीद, एम. जे. अकबर आदि नहीं कर पाते। आज भी सिमी जैसे संगठन या बुखारी, जिलानी, मदनी आदि ही मुस्लिम नेता हैं जो भारत के विरुद्ध जिहाद करने वाले ओसामा बिन लादेन को अपना नायक मानते हैं। या सैयद शहाबुद्दीन जो बात-बात में अरब देशों की तानाशाही व जहालत को सिर नवाते हैं और स्वाधीनता दिवस का बहिष्कार कर देश-भक्ति के प्रति खुली अवहेलना प्रकट करते हैं।

यह उसी परंपरा की कड़ी है जब अपने जमाने के सबसे बड़े मुस्लिम नेता मौलाना शौकत अली ने भारत पर अफगानिस्तान के हमले की सूरत में अफगानिस्तान का साथ देने की घोषणा की थी। तब कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर ने अनेक मुस्लिम महानुभावों से स्वयं पूछा था कि यदि कोई मुस्लिम हमलावर भारत पर हमला कर दे तो वे किस का साथ देंगे? उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उसी प्रसंग में प्रख्यात विदुषी और कांग्रेस अध्यक्षा रही एनी बेसेंट ने 1921 में नोट किया था, “मुसलमान नेता कहते हैं कि यदि अफगानिस्तान भारत पर हमला करता है तो वे आक्रमणकारी मुस्लिमों का साथ देंगे और उन से लड़ने वाले हिंदुओं का कत्ल करेंगे। हम यह मानने के लिए मजबूर हैं कि मुसलमानों का मुख्य लगाव मुस्लिम देशों से है, मातृभूमि से नहीं।”

इसलिए अयातुल्ला खुमैनी, बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, अहमदीनेजाद जैसी विदेशी हस्तियों के आह्वान पर सारी दुनिया में लाखों मुसलमानों का उठ खड़े होने के पीछे एक संगति है। यह प्रवृत्ति जाने या अनजाने अपने देश की उपेक्षा और विरोध भी करने के लिए तैयार रहती है। शर्त यह है कि मुद्दा इस्लामी हित होना चाहिए। इसी कारण आज पाकिस्तान में निरंतर तालिबानी हमलों के बावजूद वहीं तालिबानों का समर्थक मजबूत तबका भी है। वे अपने वतन से बढ़कर इस्लामी खलीफत के दीवाने हैं।

इतिहास और वर्तमान, सिद्धांत और व्यवहार के सभी आकलन यही दिखाते हैं कि इस्लामी निर्देशों को आधार बनाकर कोई हल नहीं मिल सकता। कहीं न कहीं इस्लाम को नमस्कार करके कहना पड़ेगा, कि हे देवता! आपकी एक सीमा है। जिसके बाद मानवता की सामान्य बुद्धि से सही और गलत का फैसला होता है। उस पर किसी किताब का हुक्म नहीं चलाया जा सकता, और नहीं चलना चाहिए। दुनिया के लोगों की आम सहमति से जहाँ उचित और अनुचित का निर्णय होना चाहिए। मगर वह घोषणा होने में अभी देर है। सब लोग किसी सऊदी गोर्बाचेव के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो दीवार पर लिखे सच को सच मान कर इस्लामी जगत में पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त का आरंभ करेगा।

मगर तब तक हम क्या करें? इस पर श्रीअरविंद ने कोई सौ वर्ष पहले कहा था कि चाटुकारिता से हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती। न इस्लाम की लल्लो-चप्पो से मुसलमानों को राष्ट्रीय धारा में जोड़ा जा सकता है। अंतरिम समाधान का सरल और सटीक उपाय भी श्रीअरविंद ने 1926 में ही बता दिया थाः “मुसलमानों को तुष्ट करने का प्रयास मिथ्या कूटनीति थी। सीधे हिंदू-मुस्लिम एकता उपलब्ध करने की कोशिश के बजाए यदि हिंदुओं ने अपने को राष्ट्रीय कार्य में लगाया होता तो मुसलमान धीरे-धीरे अपने-आप चले आते। …एकता का पैबंद लगाने की कोशिशों ने मुसलमानों को बहुत ज्यादा अहमियत दे दी और यही सारी आफतों की जड़ रही है।”

दुर्भाग्य से हिंदुओं ने तब शुतुरमुर्गी रास्ता अपनाया था। परिणाम 1947 में सामने आ गया। यदि फिर वही कोशिशें होती रहे, तब हम किस परिणाम की आशा कर सकते हैं!

शंकर शरण


सोमवार, 15 अगस्त 2011

टीपू सुल्तान की सच्चाई

टीपू सुलतान हैदर अली की म्रत्यु के बाद उसका पुत्र टीपू सुलतान मैसूर की गद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठते ही टीपू ने मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया। मुस्लिम सुल्तानों की परम्परा के अनुसार टीपू ने एक आम दरबार में घोषणा की ---"मै सभी काफिरों को मुस्लमान बनाकर रहूंगा। "तुंरत ही उसने सभी हिन्दुओं को फरमान भी जारी कर दिया.उसने मैसूर के गाव- गाँव के मुस्लिम अधिकारियों के पास लिखित सूचना भिजवादी कि, "सभी हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षा दो। जो स्वेच्छा से मुसलमान न बने उसे बलपूर्वक मुसलमान बनाओ और जो पुरूष विरोध करे, उनका कत्ल करवा दो.उनकी स्त्रिओं को पकडकर उन्हें दासी बनाकर मुसलमानों में बाँट दो। " इस्लामीकरण का यह तांडव टीपू ने इतनी तेजी से चलाया कि , पूरे हिंदू समाज में त्राहि त्राहि मच गई.इस्लामिक दानवों से बचने का कोई उपाय न देखकर धर्म रक्षा के विचार से हजारों हिंदू स्त्री पुरुषों ने अपने बच्चों सहित तुंगभद्रा आदि नदिओं में कूद कर जान दे दी। हजारों ने अग्नि में प्रवेश कर अपनी जान दे दी ,किंतु धर्म त्यागना स्वीकार नही किया। टीपू सुलतान को हमारे इतिहास में एक प्रजावत्सल राजा के रूप में दर्शाया गया है।


टीपू ने अपने राज्य में लगभग ५ लाख हिन्दुओ को जबरन मुस्लमान बनाया। लाखों की संख्या में कत्ल कराये। कुछ एतिहासिक तथ्य मेरे पास उपलब्ध जिनसे टीपू के दानवी ह्रदय का पता चलता है............... टीपू के शब्दों में "यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए,तब भी में हिंदू मंदिरों को नष्ट करने से नही रुकुंगा."(फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल) "दी मैसूर गजेतिअर" में लिखा है"टीपू ने लगभग १००० मंदिरों का ध्वस्त किया। २२ मार्च १७२७ को टीपू ने अपने एक सेनानायक अब्दुल कादिर को एक पत्र likha ki,"१२००० से अधिक हिंदू मुस्लमान बना दिए गए।" १४ दिसम्बर १७९० को अपने सेनानायकों को पात्र लिखा की,"में तुम्हारे पास मीर हुसैन के साथ दो अनुयाई भेज रहा हूँ उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बंदी बना लेना और २० वर्ष से कम आयु वालों को कारागार में रख लेना और शेष सभी को पेड़ से लटकाकर वध कर देना" टीपू ने अपनी तलवार पर भी खुदवाया था ,"मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि, में संसार से काफिरों(गैर मुसलमान) को समाप्त कर दूँ" ऐसे कितने और ऐतिहासिक तथ्य टीपू सुलतान को एक मतान्ध ,निर्दयी ,हिन्दुओं का संहारक साबित करते हैं क्या ये हिन्दू समाज के साथ अन्याय नही है कि, हिन्दुओं के हत्यारे को हिन्दू समाज के सामने ही एक वीर देशभक्त राजा बताया जाता है, अगर टीपू जैसे हत्यारे को भारत का आदर्श शासक बताया जायेगा तब तो सभी इस्लामिक आतंकवादी भारतीय इतिहास के ऐतिहासिक महान पुरुष बनेगे।

महात्मा गान्धी- कुछ अनकहे कटु तथ्य

१. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (१९१९) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया।

२. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।

३. ६ मई १९४६ को समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष
अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।

४. मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए १९२१ में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग १५०० हिन्दु मारे गए व २००० से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया,
वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।

५.१९२६ में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया।

६.गान्धी ने अनेक अवसरों पर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह जी को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।

७.गान्धी ने जहाँ एक ओर काश्मीर के हिन्दु राजा हरि सिंह को काश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दु बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।

८. यह गान्धी ही था जिसने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।

८. कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति (१९३१)ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गाँधी कि जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।

९. कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहा था, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया।

१०. लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।

११. १४-१५ १९४७ जून को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब
जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।

१२. मोहम्मद अली जिन्ना ने गान्धी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया।

१३. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनातह् मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और १३ जनवरी १९४८ को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली
की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।

१४. पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।

१५. २२ अक्तूबर १९४७ को पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने
आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी। उपरोक्त परिस्थितियों में नथूराम गोडसे नामक एक युवक ने गान्धी का वध कर दिया। न्य़यालय में चले
अभियोग के परिणामस्वरूप गोडसे को मृत्युदण्ड मिला किन्तु गोडसे ने न्यायालय में अपने कृत्य का जो स्पष्टीकरण दिया उससे प्रभावित होकर उस अभियोग के न्यायधीश श्री जे. डी. खोसला ने अपनी एक पुस्तक में लिखा-"नथूराम का अभिभाषण दर्शकों के लिए एक आकर्षक दृश्य था। खचाखच भरा न्यायालय इतना
भावाकुल हुआ कि लोगों की आहें और सिसकियाँ सुनने में आती थीं और उनके गीले नेत्र और गिरने वाले आँसू दृष्टिगोचर होते थे। न्यायालय में उपस्थित उन प्रेक्षकों को यदि न्यायदान का कार्य सौंपा जाता तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि उन्होंने अधिकाधिक सँख्या में यह घोषित किया होता कि नथूराम निर्दोष है।" तो भी नथूराम ने भारतीय न्यायव्यवस्था के अनुसार एक व्यक्ति की हत्या के अपराध का दण्ड मृत्युदण्ड के रूप में सहज ही स्वीकार किया। परन्तु भारतमाता के विरुद्ध जो अपराध गान्धी ने किए, उनका दण्ड भारतमाता व उसकी सन्तानों को भुगतना पड़ रहा है। यह स्थिति कब बदलेगी? २ अक्तूबर (गान्धी जयन्ती) पर यह विषय विशेष रूप से विचारणीय है, जिससे कि हम भारत के भविष्य का मार्ग निर्धारित कर सकें।


जय प्रकाश गुप्त, अम्बाला छावनी।

गोधरा पर निर्णय-धर्मनिरपेक्ष साजिशों का भण्डाफोड़

आज से नौ वर्षों पूर्व गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एस-6 बोगी में धटी वीभत्स हृदय विदारक घटना पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक हटाये जाने के बाद आखिरकार विशेष अदालत ने अपना निर्णय सुना ही दिया।

अयोध्या के विवादित स्थल पर निर्णय सुनाये जाने के बाद यह देश का ऐसा महत्वपूर्ण निर्णय था जिस पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई थी। अहमदाबाद की विशेष अदालत ने साबरमती काण्ड को एक गहरी साजिश मानते हुए 11 अभियुक्तों को सजा – ए -मौत तथा 20 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। विशेष अदालत ने 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने जो यह व्यवस्था दी थी कि फांसी की सजा दुर्लभ से भी दुर्लभतम श्रेणी के तहत दी जानी चाहिए का अनुपालन करते हुए 11 प्रमुख अभियुक्तों अब्दुल रज्जाक कुक्कूर, बिलाल इस्माइल उर्फ बिलाल हाजी, रमजारी बिनयामीन बहरा, हसन अहमद चरखा उर्फ लालू, जाबर बिरयामीन बहरा, महबूब खालिद चंद्रा, सलीम उर्फ सलमान चंद्रा, सिराज मुहम्मद मेड़ा उर्फ बाला, इरफान कलंदर उर्फ इरफान भोपो, इरफान मोहम्मद पाटलिया व महबूब हसन उर्फ लती को फांसी की सजा सुनायी है। वहीं 20 अन्य अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। देश के न्यायिक इतिहास में ंऐसा पहली बार हुआ है कि इतने बड़े अपराध में 31 मिनट में 31 अभियुक्तों को एक साथ सजा सुनायी गयी। हालांकि अभी यह प्रकरण 90 दिनों के बाद हाईकोर्ट जाएगा व फिर सर्वोच्च न्यायालय होते हुए राष्ट्रपति भवन तक का सफर दया याचिका के माध्यम से लम्बा सफर तय करेगा। अतः पुरा मामला अभी काफी लम्बा चलेगा। हिंदू विरोधी व मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों व वामपंथी लेखकों को अयोध्या निर्णय की तरह यह निर्णय भी अच्छा नहीं लग रह है। अदालत ने साबरमती काण्ड को एक सुनियोजित साजिश बताकर उन धर्मनिरपेक्ष नेताओं विशेष रूप से पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव सरीखे नेताओं की बोलती तो अवश्य बंद ही कर दिया है जिन्होने अपनी हिंदू विरोधी मानसिकता के चलते व मात्र मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए तथा निरापराध हिंदुओं के साथ हुए अन्याय को नजरांदाज करते हुए 4 सितम्बर, 2004 को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज यू सी बनर्जी के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन कर दिया जिसने 12 जनवरी, 2005 को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा कि ,साबरमती एक्सप्रेस की एस – 6 बोगी में आग जानबूझकर किसी षड्यंत्र के तहत नहीं लगायी गयी। यह रिपोर्ट पूरी तरह से नानावटी आयोग के निष्कर्षों के विपरीत थी क्योकि नानावटी आयोग का मत था कि, यह पूरी घटना एक साजिश थी।आज यही कारण है कि हिंदू विरोधी मानसिकता के चलते लालू प्रसाद यादव बिहार की जनता की नजरों में अछूत हो गये हैं। उन्होंने सोचा था कि निरापराध हिंदुओं की हत्या के षड़यंत्रों में मुसलमानों को बचाकर वे बिहार की सत्ता का सुख भोग लेंगे लेकिन यह दिवास्वप्न ही रह गया। गोधरा काण्ड व उसके बाद भड़के दंगों को लेकर देश के तथाकथित सेक्यूलरों व मानवाधिकारियों ने जिस प्रकार से अपनी विकृत मानसिकता के आंसू बहाए अब उक्त निर्णय से उनके आंसुओं का पर्दाफाश हो चुका है। विशेष अदालत का निर्णय उन लोगों के लिए गहरा आघात है जो उक्त निर्मम व दुर्लभतम धृणित हत्याकाण्ड को महज राजनैतिक स्वार्थों के चलते इस बर्बर दुर्घटना को मात्र घटना करार दे रहे थे। अतः वे सभी राजनैतिक दल व्यक्ति व संगठन भी उस घटना के उतने ही बड़े आरोपी हैं जो कि उक्त घटना के आरोपियों को बचाने का घृणित खेल खेल रहे थे। यह हत्याकाण्ड आजादी के बाद देश का ऐसा शर्मनाक हत्याकाण्ड था जिसने मानवता को हिला कर रख दिया था लेकिन उसके बाद की राजनैतिक घटनाओं ने तो देश को और भी बुरी तरह से झकझोर दिया। भारतीय संविधान व धर्मनिरपेक्षता के रक्षकों ने भी अपनी सारी मर्यादाएं तोड़ दी तथा उन्हें पूरी घटनाओं में केवल एक ही व्यक्ति पर सारा दोष नजर आया वह थे नरेंद्र मोदी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने गोधराकाण्ड के फैसले पर लगी रोक हटाकर उक्त सभी लोगों की राजनीति पर ब्रेक लगा दी है। लेकिन वे लोग अब भी अपने घृणित कारनामों से पीछे नहीं हटने वाले। वामपंथी विचारधारा के लेखको ने उक्त निर्णय की आलोचना करते हुए अपनी लेखनी उठा ली है तथा ऐसे लेखक न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह उठाने लगे हैं । ऐसे लेखकों, मानवाधिकारियों व सेकुलरिस्टों को हिंदुओं के साथ घटी घटना महज कल्पना लगती है। पता नहीं क्यों ऐसे लोग अपने आप को हिंदू लिख रहे हैं। सवतंत्र भारत में अंग्रेजी मानसिकता से वशीभूत लोग ही हिंदूओं व मुसलमानों के बीच उत्पन्न होती सामाजिक समरसता को ध्वंस करने का षड़यंत्र करते हैं व फिर कोई घटना घटित होने पर विकृत रूप से अपने खेल में लग जाते हैं। आज धन्य हैं वे लोग जिन्होंने गोधरा को लेकर अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और आज उक्त दुर्लभतम ऐतिहासिक हत्याकाण्ड पर न्याय का मार्ग प्रशस्त हुआ है। आज वे सभी लोग भी उक्त हत्याकाण्ड में उतने ही दोषी हैं जो कि येन केन प्रकारेण उसे दुर्घटना करार दे रहे थे। यह निर्णय उन लोगों को भी करारा जबाब है।अतः वे सभी लोग भी लोकतांत्रिक ढंग से सजा के हकदार हैं जो उस वीभत्स घटना पर वोटबैंक की राजनीति कर रहे थे। रही बात गोधरा काण्ड के बाद भड़के दंगों की तो उसके पीछे एक बडा महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि उस समय तथाकथित सेक्यूलर मीडिया ने उक्त वीभत्स घटना को दरकिनार करके बेहद पक्षपातपूर्ण ढंग से घटनाओं का प्रकाशन-प्रसारण किया था जिसके कारण भी वहां पर तनाव बढ़ा। अतः अब चूंकि पूरा मामला न्यायपालिका में गति पकड़ चुका है तो अब इस प्रकार की घटनाओं पर विकृत राजनीति बंद होनी चाहिए तथा आशा की जानी चाहिए की अन्ततः जीत सत्य व न्याय की होगी।

बंग्लादेशि घुसपैठ – एक आक्रमण

क्या बंग्लादेशियों से भारत के अनेक नगरों व सीमावर्ती क्षेत्रों में अरसे से योजनाबध्द रूप से होने वाली घुसपैठ पर हमारी राजनीतिक उपेक्षा नए जनसांख्यिक दबाव डालकर असम को मुस्लिम बहुल प्रदेश बना सकती है और हमारे महानगरों को भी असुरक्षित बना देगी? सारे देश में ये घुसपैठिए जैसे-जैसे फैलते जा रहे हैं, हमारी सरकार व राजनेताओं का ढुलमुल रवैया, ऐसा प्रतीत होता है, अपने वोट बैंक बढ़ाने के कारण उन्हें भारत का नागरिक बनाने हेतु भी सक्रिय है। एक आंकड़े के अनुसार लगभग 3 करोड़ से अधिक बंग्लादेशी देश में अवैध रूप से घुसे हैं और यह सिलसिला आज भी चल रहा है। सर्वाधिक शर्मनाक बात यह है कि इस पूरी-गैर कानूनी प्रक्रिया में हमारे अनेक राजनीतिकबाज और बुध्दिजीवी उनके मानवीय संघर्ष और अच्छी जिंदगी की ललक के नाम पर इसे तर्क-सम्मत ठहरा रहे हैं और इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि आतंकवादी संगठन उन्हें मोहरों की तरह प्रयुक्त करते हैं। क्या विश्व के किसी भी देश में, जानने पर भी क्या किसी देश की विदेशी नागरिक को एक दिन के लिए भी रहने दिया जा सकता है? यह विडंबना है कि आज भी इस व्यापक अवैध घुसपैठ में सरकारी संगठन और व्यवस्था स्वयं आंखों पर पट्टी बांधने को तैयार हैं। चाहे आसाम का करीमगंज हो या बिहार का किशनगंज इनकी जनसंख्या का दबाव व घनत्व स्पष्ट हैं। एक आकलन के अनुसार ये अवैध बंग्लादेशी पूर्वोत्तर भारत के लगभग 20 लोकसभा क्षेत्र तथा 100 विधान सभा क्षेत्रों के चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। यहां के सामाजिक जीवन को भी ये विदेशी नागरिक प्रदूषित कर रहे हैं। उग्रवादियों से मिलकर वे बड़ी आसानी से पाकिस्तानी मुद्रित भारतीय मुद्रा और हथियार भेजते रहते हैं। सरकार तो इतनी असहाय और मूकदर्शक सी बनी हुई है कि उन्हें विदेशी नागरिकों के अधिनियम के अंतर्गत नोटिस भी नहीं दिए जाते हैं। सरकार की दृष्टि में सीमाबंद करना या बाड़ लगाकर अवैध घुसपैठ की समस्या हल की जा सकती है। पर न राजनैतिक इच्छाशक्ति है और न ही भौगोलिक दृष्टि से सीमा बंद करने का समाधान और इसलिए शायद हम कुछ कर सकेंगे जब तक पानी सिर से ऊपर न हो जाए।

हाल में बंग्लादेश से मुंबई तक के अवैध सफर की प्रक्रि्रया और इस महानगर पर पड़नेवाले संभावित खतरे का आकलन एक सर्वेक्षण में किया गया था। उसी का सारांश देने का प्रयास किया गया है। मुंबई में आनेवाले 90 प्रतिशत से अधिक बंग्लादेशी यहां पहले से रह रहे बंग्लादेशी, उनसे जुड़े दलालों और भ्रष्ट शासन के सहयोग से आकर अपनी रिश्वत देने की क्षमता के कारण राशनकार्ड अथवा पहचान-पत्र आदि बनवाने में भी सफल हो जाते हैं। उनकी प्रारंभिक यात्रा दलालों के संपर्क से जैसे ही वे पश्चिम बंगाल की सीमा में पहुंचते है, हावड़ा स्टेशन से सीधे मुंबई आनेवाली ट्रेनों में सवार होकर थाणे या क्षत्रपति शिवाजी टर्मिनल के लिए रवान होने से शुरू होती है।

मुंबई में रह रहे कई बंग्लादेशियों ने पुलिस को बताया कि दलाल प्रति व्यक्ति 2.5 हजार रूपये लेता है। यह रेट हाल ही में बढ़ा है। पहले दो हजार था। दलाल एक अकेले व्यक्ति की बजाय ज्यादा से ज्यादा लोगों को ले जाना पसंद करता है। ज्यादा लोग ज्यादा दलाली। सात से आठ साल की कम उम्र के बच्चों का कोई पैसा नहीं लगता क्योंकि इनका ट्रेन टिकट नहीं लगता। अपने बार्डर पर यह दलाल पहले बंग्लादेशी राईफल्स को 600 रूपये देता है। इसके बाद हीं बंग्लादेशी बॉर्डर पार करने दिया जाता है। अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर वह इन लोगों को सीमा पार करवाने में कामयाब हो जाता है। भारत में पहुचकर स्थानीय बसों द्वारा ये लोग हावड़ा तक पहुंचते हैं। यहां से ये मुंबई आने वाली ट्रेनों में सवार हो जाते हैं। मुंबई पहुचकर दलाल इन लोगों को ऐसे इलाकों तक पहुंचा देता है जहां पहले से ही बंग्लादेशी मुस्लिम बहुल इलाके में होते हैं। पहले से बसे ये बंग्लादेशी नए आये लोगों को रोजगार दिलवाने में पूरी मदद करते हैं। जिन इलाकों में बंग्लादेशी रहते हैं वहां दलाल नियमित रूप से चक्कर लगाते रहते हैं ताकि जिन्हें वापस जाना हो उनको दलाल आसानी से मिल जाए। बंग्लादेश से मुंबई तक के पूरे सफर के दौरान ये दलाल लगातार इनके साथ ही रहता है। एक और दलाल है जो इनके द्वारा यहां कमाए हुए रूपये इनके घर(बंग्लादेश)तक पहुंचाता है। किसी तरह की मुसीबत पड़ने पर ये दलाल इनके घरों से पैसा यहां तक पहुंचाते हैं। ये पूरा लेन-देन हवाला के जरिए संपन्न होता है। हवाला की जरूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि ये गैर-कानूनी बांग्लादेशी भारत के किसी भी बैंक में खाता नहीं खुलवा सकते। हवाला की प्रक्रिया इतनी मजबूत और तीव्र है कि मुंबई से बंग्लादेश या बंग्लादेश से मुंबई यह पैसा केवल 10 मिनट में पहुंच जाता है।

नई दिल्ली में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ विषय पर कई वर्ष पहले हुए सम्मेलन में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ध्यान महाराष्ट्र में बढ़ रही बंग्लादेशियों की जनसंख्या की ओर खींचने का पूरा प्रयास किया था ऐसा करते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह हमें आतंकवादी और आई.एस.आई के एजेंटों की गतिविधियों पर पूरा ध्यान देना चाहिए(जो मौका मिलते ही देश की आर्थिक राजधानी को निशाना बनाते हैं) उसी तरह हमें बंग्लादेशियों के मसले को नजर-अंदाज नहीं करना चाहिए। मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार से इस मसले पर गुहार लगाई थी। इसी तरह महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्यमंत्री आर. आर. पाटिल ने भी डांस बारों का बंद कराना जायज ठहराया था और सफाई दी थी कि इन बारों में अधिकांशतः बांग्लादेशी लड़कियां काम करती है। भाजपा चाहती है कि केंद्र सरकार इस समस्या को हल करने हेतु कोई ठोस कदम उठाये हालांकि कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया मिली जुली रही है। कांग्रेस के अधिक तर नेता बांग्लादेशी समस्या से वाकिफ हैं पर कुछ ऐसे नेता भी हैं जिनका मानना है कि इससे पार्टी की छवि अल्पसंख्यकों में खासतौर पर मुसलमानों में खराब होगी।

महाराष्ट्र में बांग्लादेशियों की धरपकड़ सिर्फ सांकेतिक और सतही रही है। यद्यपि उनसे खतरे से वे अवगत हैं। महाराष्ट्र गृह मंत्रालय ने बताया कि वर्ष 2004 में मुंबई में सिर्फ 626 बंग्लादेशी पक ड़े गये थे। स्पेशल ब्रांच के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 सालों में मात्र 5 हजार बांग्लादेशियों को पकड़कर वापस बांग्लादेश भेज दिया गया था। सन् 1995 से 2007 तक मात्र एक हजार के आसपास बांग्लादेशी पकड़े गये थे। इसमें सर्वाधिक संख्या 897 बांग्लादेशियों को 1996 में पकड़ा गया था और न्यूनतम संख्या में 266 को 2001 में पकड़ा था। कुछ समय पहले पुलिस ने भांयखाला स्टेशन से पकड़ा था इसमें से अधिकांश को वे बांग्लादेश लौटाने का दावा करते हैं पर तुरंत बाद उनमें से ही अनेक और दूसरे अनेक बांग्लादेशी बेहिचक फिर मुंबई, ठाणे व पूणे आ जाते हैं।

कुछ प्रसिध्द सक्रिय समाजसेवी हैं, उन्होंने बताया कि इनकी बढ़ती आबादी के खिलाफ सत्ता में कांग्रेस तथा एनसीपी ने आवाज उठाई है। शिवसेना तो समय-समय पर बोलती ही है। बांग्लादेशी उन जगहों को अपना अड्डा बनाते हैं जहां मुसलमान समुदाय की आबादी अधिक होती है। तो क्या इसका मतलब है कि बांग्लादेशियों क ो भारतीय मुसलमान शरण दे रहे हैं? लेकिन यह भी सच है कि लोकशाही में भ्रमों को ज्यादा और सच्चाई को कम महत्व मिलता है। इस बात का बोध हमारे नेता मंत्रियों को सबसे ज्यादा हैं जिस तरह शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे, मनसे नेता राज ठाक रे के साथ मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुंबई में स्वयं बांग्लादेशियों के खिलाफ औपचारिक बयानबाजी करते हैं पर लगता है कुछ करना नहीं चाहते। इनके कारण देश में इनकी भीड़ लगातार बढ़ रही है। हालांकि ऐसा कहीं होता हुआ नजर नहीं आता लेकिन हमारी चिंता करने वाले नेताओं को साफ नजर आता है। ऑफिशियल रिकॉर्ड बताते हैं कि सन् 2004 में 626 बांग्लादेशी मुंबई में थे। मुंबई की 1 करोड़ की आबादी सिर्फ 626 बांग्लादेशी? और नेताओं की मानें तो यह संख्या बहुत ही खतरनाक है। दरअसल, सच्चाई यह है कि बांग्लादेशी तो नहीं लेकिन हमारे भ्रष्ट सरकारी अधिकारी देश के लिए असली खतरा हैं ।

आज मुंबई की सन् 2006 में पश्चिमी रेलवे के सीरियल बम विस्फाेंटों की शृंखला को लोग भूल चुके हैं पर उसमें भी उस समय के समाचार पत्रों में बांग्लादेशी आतंकवादियों की बात उठी थी। 11 जुलाई, 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेन में हुए बम विस्फोटों में लगभग 200 लोगों की जान चली गई थी। कहते हैं कि इन विस्फोटों में बांग्लादेशी आतंकवादियों का भी हाथ था। मुंबई पुलिस एंटी-टेरेरिस्ट स्क्वॉयड के प्रमुख के. पी. रघुबंशी ने बताया था कि कई बांग्लादेशी नागरिक कानूनी तौर पर भारत घूमने आते हैं और फिर अचानक गायब हो जाते हैं ओर फिर उनका कोई सुराग नहीं मिलता। इन्होंने यह भी बताया था कि 11 जुलाई बम विस्फोट की तफतीश में पकड़े गए कमल अंसारी और मोहम्मद मजीन ने आतंकवदियों को भारत-बंग्लादेश बॉर्डर पार कराकर मुंबई तक पहुंचाया था। इन्हीं आतंकवादियों का हाथ 11 जुलाई के बम विस्फोटों में भी था।

मुंबई में झोपड़ी का फैलाव एक नासूर है। यहां झोपड़ियों की समस्या इतनी जटिल है कि आजादी के बाद से आज तक कोई भी सरकार इसे खत्म नहीं कर सकी है। ऐसे में गैर-कानूनी तौर पर रह रहे बांग्लादेशियों के लिए झोपड़पटि्टयां फायदे का सौदा साबित होता है। जिन लोगों ने सरकारी और निजी जमीन पर कब्जा करके 1995 से पहले झोपड़ियां बनाई थी उन लोगों को वहां से हटाकर सरकार पुनर्वसन करने की तैयारी में रहती है। इन जगहों पर एक बड़ा प्रतिशत बांग्लादेशी रहता है। गैर-कानूनी ढंग से रहने वाले बांग्लादेशियों के जिन ठिकानों पर छापे पड़े थे उनमें डोंगरी, पायधुनी, मस्जिद रोड, चीता कैं प, ट्रांबे, लालभाटी और वडाला मुख्य थे पर हाल में नए दर्जनों स्थानों का नाम भी लिया जा रहा हैं। जिनमें उत्तर-पूर्वी मुंबई के एकता नगर, चिखलवाड़ी, साईबाबा नगर, गोंवडी और मानखुर्द भी है।

केंद्र जानता है कि जो स्थिति मुंबई में है, अवैध बांग्लादेशी कि उपस्थिति दूसरे प्रांतों में उससे कहीं बुरी है। भारत और बांग्लादेशी के बीच करीब 1600 कि. मी. की खुली सीमा है। समुद्री सीमा भी बांग्लादेश के साथ लगती है। बांग्लादेश के अलावा पश्चिम में बंगाल की सीमा नेपाल, भूटान और सिक्किम से भी सटी हुई है। उत्तर पूर्व के भारत विरोधी तत्वों को हथियार प्राप्त करने के लिए यह सुरक्षित अभयारण्य है। इस चौराहे पर पशु तस्कर, आई. एस. आई. एजेंट, हथियारों के सौदागर, मादक पदार्थों और जाली नोटों के तस्कारों के साथ-साथ आतंकवादियों की सरगर्मी भी चलती रहती है। बिहार, नेपाल सीमा के दोनों ओर मुस्लिम जनसांख्यिक दबाव स्पष्ट है और रक्सौल, जयनगर, निर्मली, पूर्णिया, किशनगंज तथा जोगबनी, अटरिया, कटिहार आदि जगह में नए मुस्लिम पाकेट बन चुके हैं। वहां के स्थानीय प्रशासन द्वारा स्वीकार किया जा चुका हैं कि वहां कुल 15 लाख बंग्लादेशी मुसलमान बस गए हैं। उनके संबंध महानगरों के कई आपराधिक संगठनों से भी जुड़ते जा रहे हैं। एक ओर तुष्टीकरण की नीति तो दूसरी ओर वोटबैंक की लोलुपता ने आज भी राजनीतिबाजों की आंखों पर पटि्टयां बांध दी हैं।

और ऐसे सिमट गया भारत

प्राचीन भारत की सीमाएं विश्व में दूर-दूर तक फैली हुई थीं। भारत ने राजनैतिक आक्रमण तो कहीं नहीं किए परंतु सांस्कृतिक दिग्विजय अभियान के लिए भारतीय मनीषी विश्वभर में गए। शायद इसीलिए भारतीय संस्कृति और सभ्यता के चिन्ह विश्व के लगभग सभी देशों में मिलते हैं।

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से भारत का विस्तार ईरान से लेकर बर्मा तक रहा था। भारत ने संभवत विश्व में सबसे अधिक सांस्कृतिक और राजनैतिक आक्रमणों का सामना किया है। इन आक्रमणों के बावजूद भारतीय संस्कृति आज भी मौजूद है। लेकिन इन आक्रमणों के कारण भारत की सीमाएं सिकुड़ती गईं। सीमाओं के इस संकुचन का संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है।

ईरान – ईरान में आर्य संस्कृति का उद्भव 2000 ई. पू. उस वक्त हुआ जब ब्लूचिस्तान के मार्ग से आर्य ईरान पहुंचे और अपनी सभ्यता व संस्कृति का प्रचार वहां किया। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम आर्याना पड़ा। 644 ई. में अरबों ने ईरान पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

कम्बोडिया – प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्दचीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की।

वियतनाम – वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। दूसरी शताब्दी में स्थापित चम्पा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चम्पा के महान हिन्दू राज्य का अन्त हुआ।

मलेशिया – प्रथम शताब्दी में साहसी भारतीयों ने मलेशिया पहुंचकर वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित करवाया। कालान्तर में मलेशिया में शैव, वैष्णव तथा बौद्ध धर्म का प्रचलन हो गया। 1948 में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो यह सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बना।

इण्डोनेशिया – इण्डोनिशिया किसी समय में भारत का एक सम्पन्न राज्य था। आज इण्डोनेशिया में बाली द्वीप को छोड़कर शेष सभी द्वीपों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं। फिर भी हिन्दू देवी-देवताओं से यहां का जनमानस आज भी परंपराओं के माधयम से जुड़ा है।

फिलीपींस – फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।

अफगानिस्तान – अफगानिस्तान 350 इ.पू. तक भारत का एक अंग था। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के बाद अफगानिस्तान धीरे-धीरे राजनीतिक और बाद में सांस्कृतिक रूप से भारत से अलग हो गया।

नेपाल – विश्व का एक मात्र हिन्दू राज्य है, जिसका एकीकरण गोरखा राजा ने 1769 ई. में किया था। पूर्व में यह प्राय: भारतीय राज्यों का ही अंग रहा।

भूटान – प्राचीन काल में भूटान भद्र देश के नाम से जाना जाता था। 8 अगस्त 1949 में भारत-भूटान संधि हुई जिससे स्वतंत्र प्रभुता सम्पन्न भूटान की पहचान बनी।

तिब्बत – तिब्बत का उल्लेख हमारे ग्रन्थों में त्रिविष्टप के नाम से आता है। यहां बौद्ध धर्म का प्रचार चौथी शताब्दी में शुरू हुआ। तिब्बत प्राचीन भारत के सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र में था। भारतीय शासकों की अदूरदर्शिता के कारण चीन ने 1957 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया।

श्रीलंका – श्रीलंका का प्राचीन नाम ताम्रपर्णी था। श्रीलंका भारत का प्रमुख अंग था। 1505 में पुर्तगाली, 1606 में डच और 1795 में अंग्रेजों ने लंका

पर अधिकार किया। 1935 ई. में अंग्रेजों ने लंका को भारत से अलग कर दिया।

म्यांमार (बर्मा) – अराकान की अनुश्रुतियों के अनुसार यहां का प्रथम राजा वाराणसी का एक राजकुमार था। 1852 में अंग्रेजों का बर्मा पर अधिकार हो गया। 1937 में भारत से इसे अलग कर दिया गया।

पाकिस्तान - 15 अगस्त, 1947 के पहले पाकिस्तान भारत का एक अंग था।

बांग्लादेश – बांग्लादेश भी 15 अगस्त 1947 के पहले भारत का अंग था। देश विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान के रूप में यह भारत से अलग हो गया। 1971 में यह पाकिस्तान से भी अलग हो गया।

श्री रामजन्मभूमि अभियान : मंदिर निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर

भारत की आत्मा श्रीराम - भारत एक धर्मप्राण देश है। समय-समय पर अनेक अवतारों ने यहां आकर इस देश और इसके निवासियों को ही नहीं, तो स्वयं को भी धन्य किया है। ऐसे ही एक महामानव थे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम। महर्षि वाल्मीकि ने सर्वप्रथम श्रीरामकथा का उपहार हमें दिया। इसके बाद दुनिया की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में श्रीराम की महिमा लिखी गयी है। संविधान के तीसरे अध्याय में, जहां मौलिक अधिकारों का उल्लेख है, सबसे ऊपर श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के चित्र बने हैं। इससे स्पष्ट है कि श्रीराम भारत की आत्मा हैं।

अयोध्या प्रकरण पर न्यायालय का निर्णय – यों तो अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के लिए हिन्दुओं द्वारा तब से संघर्ष जारी है, जब 1528 ई0 में उसे तोड़ा गया था; पर स्वराज्य प्राप्ति के बाद यह विवाद न्यायालय में चला गया। गत 30 सितम्बर, 2010 को इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने संविधान में मान्य हिन्दू कानून तथा पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर बहुत महत्व का निर्णय दिया है। इसमें सुन्नी बोर्ड के दावे को पूरी तरह निरस्त कर तीनों न्यायाधीशों ने एकमत से माना है कि -

-यह स्थान ही श्रीराम जन्मभूमि है।

-1528 में बाबरी ढांचे से पूर्व वहां एक गैरइस्लामिक (हिन्दू) मंदिर था।

एक न्यायाधीश ने तीनों गुम्बद (लगभग 1,500 वर्ग गज) वाला पूरा स्थान हिन्दुओं को, जबकि शेष दो ने 1/3 भाग मुसलमानों को भी देने को कहा है। यह विभाजन अव्यावहारिक, अनुचित और असंभव है। अतः पूरा स्थान हिन्दुओं को मिलना चाहिए। अयोध्या में कई मस्जिदें हैं; पर श्रीराम जन्मभूमि केवल यही है। पूरा स्थान मिलने से ही जन-जन की आकांक्षा और प्रभु श्रीराम की प्रतिष्ठा के अनुरूप भव्य मंदिर बन सकेगा।

इतिहास में अयोध्या – त्रेतायुग में श्रीराम का जन्म परम पावन सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या में हुआ। अयोध्या को लाखों साल से मोक्ष प्रदान करने वाली नगरी माना जाता है। यह आदिकाल से करोड़ों भारतवासियों की मान्यता है।

अयोध्या मथुरा माया, काशी कांची अवन्तिका

पुरी द्वारावती चैव, सप्तैता मोक्षदायिकाः।।

अयोध्या सदा से भारत के सभी मत-पंथों के लिए पूज्य रही है। यहां जैन मत के पांच तीर्थंकरों का जन्म हुआ। भगवान बुद्ध ने यहां तपस्या की। गुरु नानक, गुरु तेगबहादुर एवं गुरु गोविंद सिंह जी भी यहां पधारे। दुनिया भर के इतिहासकारों और विदेशी यात्रियों की पुस्तकों के हजारों पृष्ठ अयोध्या की महिमा से भरे हैं। विश्व में प्रकाशित सभी प्रमुख मानचित्र पुस्तकों (एटलस) में अयोध्या को प्रमुखता से दर्शाया गया है।

इस्लाम का उदय और मंदिर पर आक्रमण – 712 ई0 से मुस्लिम सेनाओं के आक्रमण शान्त और सम्पन्न भारत पर होने लगे। 1526 ई0 में बाबर भारत और 1528 ई0 में अयोध्या आया। उसके आदेश पर उसके सेनापति मीरबाकी ने श्रीराम मंदिर पर आक्रमण किया। 15 दिन के घमासान युद्ध में मीरबाकी ने तोप के गोलों से मंदिर गिरा दिया। इस युद्ध में 1.74 लाख हिन्दू वीर बलिदान हुए। फिर उसने दरवेश मूसा आशिकान के निर्देश पर उसी मलबे से एक मस्जिद जैसा ढांचा बनवा दिया। चूंकि यह काम हड़बड़ी और हिन्दुओं के लगातार आक्रमणों के बीच हो रहा था, इसलिए उसमें मस्जिद की अनिवार्य आवश्यकता मीनार तथा नमाज से पूर्व हाथ-पांव धोने (वजू) के लिए जल का स्थान नहीं बन सका।

मंदिर-प्राप्ति के प्रयत्न - इस घटना के बाद मंदिर की प्राप्ति हेतु संघर्ष का क्रम चल पड़ा। 1528 से 1949 ई0 तक हुए 76 संघर्षों का विवरण इतिहास में मिलता है। राजा से लेकर साधु-संन्यासी और सामान्य जनता ने इन युद्धों में भाग लिया। पुरुष ही नहीं, स्त्रियों ने भी प्राणाहुति दी। इस बीच कुछ मध्यस्थों के प्रयास से वहां बने ‘राम चबूतरे’ पर हिन्दू पूजा करने लगे। लोग ढांचे वाले उस परिसर की परिक्रमा भी करते थे। अंग्रेजी शासन में अंतिम बड़ा संघर्ष 1934 में बैरागियों द्वारा किया गया। उसके बाद वहां फिर कभी नमाज नहीं पढ़ी गयी।

समाधान का असफल प्रयास – 1857 के स्वाधीनता संग्राम के समय सरदार अमीर अली के नेतृत्व में स्थानीय मुसलमान यह स्थान छोड़ने को तैयार हो गये थे। इस वार्ता में हिन्दुओं के प्रतिनिधि बाबा राघवदास थे; पर अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाये रखने के लिए दोनों को फांसी दे दी। इससे मामला फिर लटक गया।

श्रीरामलला का प्राकट्य एवं तालाबन्दी – इस मामले में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भक्तों ने 23 दिसम्बर, 1949 को ढांचे में श्रीरामलला की मूर्ति स्थापित कर पूजा-अर्चना प्रारम्भ कर दी। प्रधानमंत्री नेहरू जी ने मूर्ति को हटवाना चाहा; पर प्रबल जनभावना को देख मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत यह साहस नहीं कर सके। जिलाधिकारी श्री नायर ने वहां ताला डलवा कर शासन की ओर से पुजारी नियुक्त कर पूजा एवं भोग की व्यवस्था कर दी।

न्यायालय में वाद – जनवरी, 1950 में दो श्रद्धालुओं के आग्रह पर न्यायालय ने श्रीरामलला के नित्य दर्शन, पूजन एवं सुरक्षा की व्यवस्था की। 1959 में निर्मोही अखाड़े ने तथा 1961 में केन्द्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड ने स्वामित्व हेतु वाद दायर किये। न्यायालय में सुनवाई के बीच वहां पूजा, अर्चना और भक्तों का आगमन जारी रहा।

आंदोलन के पथ पर हिन्दू - 1983 में मुजफ्फरनगर (उ0प्र0) में हुए हिन्दू सम्मेलन में दो वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं, पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री गुलजारीलाल नन्दा तथा उ0प्र0 शासन के पूर्व मंत्री श्री दाऊदयाल खन्ना ने केन्द्र शासन से कहा कि वह संसद में कानून बनाकर श्रीराम जन्मभूमि, श्रीकृष्ण जन्मभूमि तथा काशी विश्वनाथ मंदिर हिन्दुओं को सौंप दे, जिससे देश में स्थायी सद्भाव स्थापित हो सके; पर शासन ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

यह देखकर हिन्दुओं को ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति’ के बैनर पर आंदोलन का मार्ग अपनाना पड़ा। अक्तूबर, 1984 में ‘श्रीराम जानकी रथ’ की यात्रा द्वारा जन जागरण प्रारम्भ कर सबसे पहले रामलला को ताले से मुक्त करने की मांग की गयी। दबाव बढ़ते देख शासन ने 1 फरवरी, 1986 को ताला खोल दिया।

जन जागरण द्वारा मंदिर निर्माण की ओर - इसके बाद हिन्दुओं के सभी मत-पंथ के धर्मगुरुओं ने ‘श्रीराम जन्मभूमि न्यास’ का गठन किया। जुलाई, 1989 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री देवकीनंदन अग्रवाल ने न्यायालय से सम्पूर्ण परिसर को श्रीरामलला की सम्पत्ति घोषित करने को कहा। न्यायालय ने सब वाद लखनऊ की पूर्ण पीठ को सौंप दिये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद की प्रमुख भूमिका के कारण यह अभियान जनांदोलन बन गया। सितम्बर, 1989 में भारत के 2.75 लाख गांवों व नगरों के मंदिरों में श्रीराम शिलापूजन सम्पन्न हुआ। 6.25 करोड़ लोगों ने इसमें भागीदारी की। विदेशस्थ हिन्दुओं ने भी शिलाएं भेजीं।

जनदबाव के चलते केन्द्र तथा राज्य शासन को झुकना पड़ा और 9 नवम्बर, 1989 को प्रमुख संतों की उपस्थिति में शिलान्यास सम्पन्न हुआ। पहली ईंट बिहार से आये वंचित समाज के रामभक्त कामेश्वर चौपाल ने रखी। मंदिर आंदोलन समरसता की गंगोत्री बन गया।

1990 में कारसेवा – जून, 1990 में हरिद्वार के हिन्दू सम्मेलन में पूज्य सन्तों व धर्माचार्यों ने मंदिर निर्माण हेतु कारसेवा की घोषणा कर दी। 30 अक्तूबर को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की गर्वोक्ति के बाद भी कारसेवकों ने गुम्बदों पर भगवा फहरा दिया। बौखला कर उसने 2 नवम्बर को गोली चलवा दी, जिसमें कई कारसेवक बलिदान हुए। इस नरसंहार से पूरा देश आक्रोशित हो उठा। मुलायम सिंह को हटना पड़ा। नये चुनाव में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा ने सत्ता संभाली। हिन्दू मंदिर निर्माण की ओर क्रमशः आगे बढ़ रहे थे।

भूमि का समतलीकरण – प्रदेश शासन ने तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए विवादित स्थल के पास 2.77 एकड़ भूमि अधिग्रहित कर ली। उसे समतल करते समय अनेक खंडित मूर्तियां तथा मंदिर के अवशेष निकले।

1992 में कारसेवा - अक्तूबर, 1992 में दिल्ली में हुई ‘धर्म संसद’ में पूज्य धर्माचार्यों ने गीता जयन्ती (मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, छह दिसम्बर, 1992) से फिर कारसेवा का निर्णय लिया। दीपावली पर अयोध्या से आई ‘श्रीराम ज्योति’ से घर-घर दीप जलाये गये।

प्रदेश शासन के अधिग्रहण को मुसलमानों द्वारा न्यायालय में दी गयी चुनौती की याचिका पर नवम्बर 1992 में सुनवाई पूरी हो गयी। दोनों हिन्दू न्यायमूर्तियों ने निर्णय लिख दिया; पर तीसरे श्री रजा ने इसके लिए 12 दिसम्बर, 1992 की तिथि घोषित की। इससे अयोध्या आये दो लाख कारसेवकों के आक्रोश से वह जर्जर बाबरी ढांचा धराशायी हो गया। इस प्रक्रिया में 1154 ई0 का वह शिलालेख भी मिला, जिस पर गहड़वाल राजाओं द्वारा मंदिर निर्माण की बात लिखी थी। कारसेवकों ने एक अस्थायी मंदिर निर्माण कर रामलला की पूजा प्रारम्भ कर दी।

केन्द्र शासन द्वारा हस्तक्षेप – अब केन्द्र सरकार की कुंभकर्णी निद्रा खुली। उसने 7 जनवरी, 1993 को विवादित क्षेत्र तथा उसके पास की 67 एकड़ भूमि अधिग्रहीत कर ली। इसी समय महामहिम राष्ट्रपति डा0 शंकरदयाल शर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय से पूछा कि क्या 1528 से पूर्व वहां कोई हिन्दू मंदिर या भवन था ? सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रश्न प्रयाग उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को सौंप दिया।

इधर केन्द्र के अधिग्रहण को इस्माइल फारुखी ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस पर बहस में शासन ने लिखित शपथ पत्र में कहा कि अंतिम निर्णय के बाद उस स्थान पर यदि हिन्दू मंदिर या भवन सिद्ध होगा, तो वह उसे हिन्दुओं को लौटाने को प्रतिबद्ध है। ऐसा न होने पर मुसलमानों की इच्छा का सम्मान किया जाएगा।

राडार सर्वेक्षण एवं उत्खनन - न्यायालय ने कहा कि यदि किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी है, तो उसके अवशेष धरती के नीचे अवश्य होंगे। उसके आदेश पर कनाडा के वैज्ञानिकों ने राडार सर्वेक्षण से भूमि के नीचे के चित्र लिये। प्राप्त चित्रों तथा इनकी पुष्टि के लिए हुए उत्खनन से वहां प्राचीन मंदिर था, यह सिद्ध हुआ। न्यायालय का 30 सितम्बर, 2010 का निर्णय इन प्रमाणों पर ही आधारित है।

वार्ताओं का क्रम – पूज्य सन्तों, विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह इच्छा थी कि भारतीय मुसलमान स्वयं को बाबर जैसे विदेशी आक्रामकों से न जोड़ें और प्रेम से वह स्थान हिन्दुओं को दे दें। गांधी जी ने भी अपने समाचार पत्र ‘नवजीवन’ में 27.7.1937 को यही कहा था। सब समझदार मुसलमान भी इस पक्ष में थे; पर बात नहीं बनी। अतः प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और फिर नरसिंह राव ने दोनों पक्षों को वार्ता के लिए बुलाया। वार्ता की असफलता से न्यायालय का मार्ग ही शेष बचा, जिसके निर्णय से सत्य की जीत हुई है।

चुनौती और संकल्प – आज भी प्रभु श्रीराम बांस और टाट के उस अस्थायी मंदिर में विराजित हैं। हर दिन हजारों भक्त उनके दर्शन करते हैं। हमारी मांग है कि सोमनाथ मंदिर की तरह ही संसद कानून बना कर श्रीराम जन्मभूमि हिन्दुओं को सौंपे, जिससे वहां भव्य मंदिर बन सके।

मंदिर निर्माण से राष्ट्र निर्माण - श्रीराम केवल हिन्दुओं के ही नहीं, भारतीय मुसलमान और ईसाइयों के भी पूर्वज हैं। भारत माता सबकी माता है। सब एक संस्कृति के उपासक और एक ही समाज के अंग हैं। न्यायालय का निर्णय मुसलमानों को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार का अवसर देता है। मंदिर निर्माण में सब मत, पंथ और मजहब वालों के सहयोग से स्थायी सद्भाव का निर्माण होगा और देश तेजी से प्रगति करेगा। इससे भारत में रामराज्य की कल्पना साकार होगी, जो आज भी विश्व में आदर्श माना जाता है। आइये, श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए हम सब संकल्प लें। जय श्रीराम।

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रचनाकार: सुभद्रा कुमारी चौहान

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,

लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,

बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,

देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवार।

महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,

ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,

राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,

किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,

तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,

रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,

राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,

फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,

व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,

डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,

कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,

उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात?

जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,

उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,

सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,

‘नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,

वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,

यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,

झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,

अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,

भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बड़ा जवानों में,

रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध असमानों में।

ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,

अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,

काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,

युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,

किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,

घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,

रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,

अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,

हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,

यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,

होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,

हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

वह खून कहो किस मतलब का

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सही
खूँ की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में

मॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके हो जग में,
लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणों में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के
कोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”
शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं
आकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन को
सर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन
माता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन में
खून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को
हिंदुस्तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस पर
खूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ,
आएजो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी-
हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो,
हम अपना रक्त चढाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन,
देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से,
वे अपना रक्त गिराते थे!

फिर उस रक्त की स्याही में,
वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा था
हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने
ख़ूँ से अपना इतिहास नया।