रविवार, 28 अगस्त 2011

वंदे मातरम और इस्लाम

घटना 30 दिसंबर 1939 की है। पांडिचेरी में योगी श्रीअरविन्द संध्याकाल अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। तभी किसी ने नए समाचारों की चर्चा करते कहा, “कुछ लोगों को ‘वंदे मातरम’ के राष्ट्रीय गान होने में आपत्ति है और कुछ कांग्रेसी उस के कुछ पदों को निकाल देने के पक्ष में हैं।” इस पर श्रीअरविन्द ने टिप्पणी की, “उस स्थिति में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति छोड़ देनी चाहिए।” शिष्य ने यह भी बताया कि वंदे-मातरम गान का विरोध क्यों है, “तर्क यह है कि इस गान में दुर्गा आदि हिन्दू देवी-देवताओं की बात कही गई है जो मुसलमानों के लिए अप्रिय है।”

तब श्रीअरविन्द ने समझाया, “लेकिन यह धार्मिक गान नहीं है। यह एक राष्ट्रीय गान है और राष्ट्रीयता के भारतीय स्वरूप में स्वभावतः हिन्दू दृष्टि रहेगी। अगर इसे यहाँ स्थान न मिल सके तो हिन्दुओं से कहा जा सकता है कि वे अपनी संस्कृति छोड़ दें। … हिन्दू अपने भगवान की पूजा क्यों न करें? अन्यथा हिन्दुओं को या तो इस्लाम स्वीकार कर लेना चाहिए या यूरोपीय संस्कृति या फिर नास्तिक बन जाना चाहिए।”

आज उस प्रसंग से क्या कोई शिक्षा मिलती है? यह भी जान लें कि उस समय उठे विरोध के बाद कांग्रेस ने इस गीत का केवल पहला अंश गाने का निर्णय किया, ताकि ‘देवी-देवताओं’ संबंधी मुसलमानों की आपत्ति खत्म हो जाए। उस समय तक वंदे-मातरम गान अपने तीनों अंतरों समेत पूरा गाया जाता था। किन्तु इस्लामी आपत्ति को देखते हुए इस गीत के बाद वाले दो अंतरे गाना बंद कर दिया गया। इस से मुस्लिम नेता संतुष्ट हुए। किन्तु कुछ समय बीतने बाद कहा गया कि यह पूरा गीत ही आपत्तिजनक है। पुनः कांग्रेस द्वारा आपत्तियों को संतुष्ट करने का ही प्रयत्न किया जाता रहा। अंततः सारी आपत्तियों का एकमुश्त हल करने हेतु मुसलमानों का अलग देश ही बना दिया गया!

तब श्रीअरविन्द वाली बात ही फलीभूत हुई। कम से कम पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में लाखों हिन्दुओं को अपनी संस्कृति और धरती या प्राण तक छोड़ देने पड़े। जो इस्लाम कबूल कर जिए, उन्होंने तो संस्कृति छोड़ी ही। किन्तु समस्या खत्म नहीं हुई। शेष बचे भारत में (जो विभाजन के तर्क से केवल हिन्दुओं का देश होना था), कुछ ही समय बाद फिर से वही आपत्तियाँ शुरू हो गईं। और फिर वही तुष्टीकरण! इस बीच कश्मीर में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति, धरती और प्राण छोड़ देने पड़े। असम, बंगाल, केरल आदि के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी शनैः-शनैः वही हो रहा है। इस्लामी पक्ष से आपत्ति और हिन्दू पक्ष का खात्मा, यह ऐतिहासिक प्रक्रिया लगभग सौ साल से चल रही है। इस का अंत किस प्रकार होगा?

इस वृहत प्रश्न को ध्यान में रखकर पुनः वंदे-मातरम गान पर आएं। यह बंग-भंग (1905) के विरुद्ध आंदोलन के समय से ही भारतीय देशभक्तों का अनुपम गीत रहा है। इसे कई मुस्लिम भी गाते रहे हैं। पर यहाँ एक बात पहले स्पष्ट हो जानी चाहिए। कि मुस्लिम जनता और उनके राजनीतिक नेताओं में भेद करना जरूरी है।

मुस्लिम जनता तो अपने आप में हिन्दू जनता की तरह ही है। अपने अवलोकन से आश्वस्त होकर वह भी अच्छे और सचाई भरे लोगों, प्रयासों को समर्थन देती है – बशर्ते उसके नेता इसमें बाधा न डालें (जैसा बुखारी ने अभी शुरू किया)। इसीलिए तो रामलीला मैदान और देश भर में मुस्लिम भी अन्ना के पक्ष में बोल रहे हैं। किन्तु मुस्लिम नेता दूसरी चीज होते हैं। उनके लिए इस्लाम ही सब कुछ है। वे हर चीज को इस्लामी तान पर खींचने की जिद करते हैं, और इसके लिए हर दाँव लगाने से नहीं चूकते। इसलिए कई बार उनकी शिकायतें नकली होती हैं, वह किसी छिपे उद्देश्य का साधन होती हैं। इसी बात को न समझकर हिन्दू महानुभाव सदैव मूर्ख बनते रहे हैं। अयातुल्ला खुमैनी ने एक बार कहा भी था कि “पूरा इस्लाम ही राजनीति है”। अभी बुखारी साहब वही कर के दिखा रहे हैं।

इसलिए इस बात को दरकिनार नहीं करना चाहिए कि इस्लाम के नाम पर वन्दे-मातरम गान का सदैव विरोध भी होता रहा है। इमाम बुखारी ने कोई नई बात नहीं कही। अभी दो साल पहले ‘जमाते उलेमा ए हिन्द’ ने वन्दे-मातरम गाने के खिलाफ फतवा दिया था। इसलिए इस पर हिन्दुओं द्वारा सफाई देना बेकार है। अन्ना के सहयोगी उसी तरह बुखारी को मनाने गए हैं, जैसे उस जमाने में गाँधीजी करते थे। उसका क्या नतीजा रहा? पूरे इतिहास को याद करें।

इस्लामी सिद्धांत की दृष्टि से बुखारी गलत नहीं हैं। लेकिन जैसा राजनीति में होता है, इस गीत पर आपत्ति उठाने और स्थगित कर देने में राजनीतिक परिस्थितियों का तर्क अधिक चला है। इसीलिए अरविन्द केजरीवाल जैसे बुद्धिमान या श्रीश्रीरविशंकर जैसे संत निरर्थक प्रयास कर रहे हैं। वे बुखारी जैसे आपत्तिकर्ताओं को इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। यानी वह काम करना चाहते हैं जहाँ गाँधी जैसे सत्यनिष्ठ सेवक बुरी तरह विफल रहे। हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए। कि यह तर्क-वितर्क का मसला ही नहीं है।

भारत के निकट इतिहास में कई उदाहरण हैं – सर सैयद से लेकर मौलाना आजाद, अब्दुल बारी, शौकत अली, आदि – जिन्होंने राष्ट्रवाद, हिन्दू-मुस्लिम एकता, गो-हत्या, हिजरत और वतनपरस्ती पर समय-समय पर विपरीत मंतव्य दिए। तदनुरूप ऐसे या वैसे आवाहन किए। तब उन अंतर्विरोधी वक्तव्यों में इस्लामी सिद्धांत क्या था? अतः समझना चाहिए कि इस्लामी मामलों में फैसले देश-काल-राजनीति और शक्ति सापेक्ष होते रहे हैं। उसमें केवल सिद्धांत जैसी कोई चीज नहीं होती। इसीलिए उसे तर्क और सदभावना मात्र से तय करने की कोशिशें व्यर्थ है। गाँधीजी इसीलिए पिटे थे।

वंदे-मातरम गान या भारत माता की पूजा आदि चीजों पर कुरान, हदीस या सुन्ना को आधार बना कर समझाना वैसे भी अन्याय है। यह तो हर चीज के लिए इस्लाम को कसौटी मान लेना हुआ। विविध पंथों, विचारों को मानने वाली जनता के लिए किसी एक पंथ को ही आधार बनाकर किसी काम की परख गलत है। जिस प्रकार मुसलमानों को कोई काम करने या न करने के लिए ईसाइयत के निर्देश को आधार नहीं बनाया जा सकता, उसी तरह इस्लाम को कसौटी बनाकर ईसाइयों या हिन्दुओं को कुछ करने या न करने के लिए कहना भी अनुचित है।

वस्तुतः इस्लाम को आधार मान कर वंदे-मातरम गान की सफाई देना व्यवहार में विपरीत फलदायी होता रहा है। इस बहस में जाने से कट्टर इस्लामपंथी ही मजबूत होते हैं। यदि स्वामी रामदेव कहते हैं कि वंदे-मातरम में “मूर्ति-पूजा का कर्मकांड” नहीं, इसलिए मुसलमानों को विरोध नहीं करना चाहिए, तो इसका मतलब है कि वे मूर्ति-पूजा को गलत मान रहे हैं। यह कौन सी बात हुई? किस आधार पर मूर्ति-पूजा गलत और काबे को सिजदा करना सही है? मगर यदि आप ऐसा ही मान लेते हैं, तब तो बात बस इतनी बचती है कि इस्लाम में क्या जायज है, क्या नहीं। उसका फैसला कोई मुफ्ती या ईमाम करेंगे कि एक हिन्दू संत?

दरअसल वंदे-मातरम विरोध कोई स्वतंत्र मुद्दा नहीं। यह इस्लाम और देश-प्रेम के संबंध से जुड़ा हुआ है। इस पर तरह-तरह की दलीलें जरूर रही। किंतु इस पर मुस्लिम चिंतकों में मूलतः कोई गंभीर मतभेद नहीं है। इस्लाम में कौम या वतन का सवाल हिजरत, दारुल-हरब तथा दारुल-इस्लाम की बुनियादी धारणाओं से अभिन्न है। हमारे देश में इसका एक बार फैसला तो 1947 में ही हो चुका। इस्लामी नेताओं और मुस्लिम जनमत ने देश नहीं, बल्कि इस्लाम को तवज्जो दी। तब से इस्लामी चिंतन में तो कुछ नहीं बदला। अतः यदि हम उस फैसले की सीख भुला कर फिर उसी कवायद में लगते हैं तो यह फिर उसी दिशा में जाएगा।

कड़वी सच्चाइयों से कतरा कर हिन्दू अपना, देश का या मुसलमानों का भी भला नहीं कर सकेंगे। याद रखना होगा कि कम्युनिज्म की तरह इस्लाम भी अंतर्राष्ट्रीय-राजनीतिक मतवाद है जिस में ‘इस्लाम ही सर्वस्व’ के सामने परिवार, समाज या देश किसी भी नाम पर एकता को कुफ्र माना गया। इसीलिए शाह वलीउल्लाह, सैयद बरेलवी, सर सैयद से लेकर मौलाना हाली, मौदूदी, सर इकबाल, मौलाना आजाद, मुह्म्मद अली, शौकत अली और जिन्ना तक रहनुमाओं की पूरी श्रृंखला ने भारतीय कौम या भारतीय समाज जैसी चीज को सिरे से खारिज किया था। उनके लिए दुनिया भर के मुसलमानों की उम्मत और खलीफत ही केंद्रीय चिंता थी।

अल्लामा इकबाल ने देश-प्रेम को उसूलन गलत ठहराया था, “इन ताजा खुदाओं में सब से बड़ा वतन है। जो पैरहन है उस का, वो मजहब का कफन है”। यानी वतन-परस्ती जो माँगती है, वह इस्लाम के लिए मौत समान है। इसलिए उसे हेच बताते हुए इकबाल कहते हैं, “कौम मजहब से है; मजहब जो नहीं, तुम भी नहीं। जज्बे बाहम जो नहीं, महफिले अंजुम भी नहीं” । उन्होंने देश-भक्ति को बुतपरस्ती का ही एक रूप बताया जिससे इस्लाम को गहरी घृणा है। इसलिए उनका कौल था, “मुस्लिम हैं हम / वतन है सारा जहाँ हमारा”। इसलिए वंदे-मातरम पर उलेमा के फतवे से लेकर मौलाना बुखारी की आपत्ति तक में कोई नई बात नहीं। इस्लाम को कसौटी मानें तो उसमें देश-प्रेम की कोई औकात नहीं।

इसलिए, समस्या बुखारी साहब या जमाते-इस्लामी के नेता या देवबंद नहीं है। समस्या वह मजहबी विचारधारा है जिससे वे निर्देशित होते हैं। जो देश से बढ़कर उम्मत को मानती है। पर हमारे नेता या बुद्धिजीवी उस विचारधारा से नहीं उलझते। उलटे, कन्नी कटाकर इस्लामी निर्देशों की ही सुंदर व्याख्या ढूँढने लगते हैं। यानी जो समस्या का कारण है उसे ही कसौटी बना लेते हैं। कि इस्लाम में ये नहीं, वो है। इस कवायद से उलटा परिणाम होना ही है। उलेमा का अपने अंध-विश्वास पर भरोसा और बढ़ जाता है कि इस्लामी हुक्म देश, समाज, मानवता आदि हर चीज से ऊपर हैं। इतना ऊपर है कि दूसरे भी यह मानते हैं। इसी विन्दु पर गाँधी जी से लेकर केजरीवाल जी तक गलती करते रहे हैं। जिसका खमियाजा हिन्दुओं को भुगतना पड़ता रहा है।

गलती यह है कि जिस विचार से लड़ाई होनी चाहिए, उसी को सिरोपा चढ़ाया जाने लगता है। तब सामान्य मुस्लिम भी विवेकशील चिंतन करने के लिए कैसे प्रेरित होंगे, जब हम ने एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी विचार से लड़ने के बजाए उस के समक्ष श्रद्धा-नत रहने की नीति बना रखी है? सच तो यह है कि ऐसा करके हम ने भारतीय मुसलमानों को इस्लाम के मजहबी-राजनीतिक अंतर्राष्ट्रीयतावाद के अधीन फँसे रहने के लिए विवश छोड़ दिया है। वे विश्व कम्युनिज्म की तरह विश्व खलीफत के राजनीतिक सपनों में उलझाए जाते हैं। इसे हजारों विवेकशील, देशभक्त, उदार मुसलमान भी नहीं रोक पाते। उनकी मजहबी किताबें उनकी मदद नहीं करतीं। वह केवल बुखारियों की ही करती हैं।

यह संयोग नहीं है कि मुसलमानों में देशभक्त, उदार, मानवतावादी लेखक, कवि या नेता इस्लाम की कमोबेश उपेक्षा कर के ही वैसे हो पाते हैं। गालिब ने भी अपने को ‘आधा मुसलमान’ ही कहा था। इसीलिए उनकी बातों का असर भी मुस्लिम समुदाय पर नहीं होता। डॉ. भीम राव अंबेदकर की ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’, मुशीर उल हक की ‘इस्लाम इन सेक्यूलर इंडिया ’, जीनत कौसर की ‘इस्लाम एंड नेशनलिज्म’ अथवा शबीर अहमद व आबिद करीम की ‘द रूट्स ऑफ नेशनलिज्म इन द मुस्लिम वर्ल्ड’ आदि पुस्तकों के अध्ययन से इस कड़वी सचाई को समझा जा सकता है।

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आम मुसलमानों में उदार लेखकों, नेताओं की नहीं चलती। खुद जिन्ना जैसे आधुनिक, सेवाधर्मी, लोकतांत्रिक, तेज-तर्रार नेता भी मुसलमानों के बेताज बादशाह तभी बने जब उन्होंने इस्लामी लफ्फाजी अपनाई। जबकि निजी जीवन में उन का इस्लाम से कोई लेना-देना न था। उलटे जिन्ना का रहन-सहन, खान-पान, आदि सब कुछ इस्लामी निर्देशों के विपरीत था। जबकि पूरे इस्लामी तरीके से जीने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान मुसलमानों के मान्य नेता न हो सके, क्योंकि वे इस्लामी माँगे नहीं कर रहे थे। यह अंतर ध्यान देने योग्य है।

अतः जैसे उस जमाने में बादशाह खान जैसे नेता आम मुसलमानों को प्रभावित नहीं कर पाए थे, वैसे ही आज हमारे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम या सलमान खुर्शीद, एम. जे. अकबर आदि नहीं कर पाते। आज भी सिमी जैसे संगठन या बुखारी, जिलानी, मदनी आदि ही मुस्लिम नेता हैं जो भारत के विरुद्ध जिहाद करने वाले ओसामा बिन लादेन को अपना नायक मानते हैं। या सैयद शहाबुद्दीन जो बात-बात में अरब देशों की तानाशाही व जहालत को सिर नवाते हैं और स्वाधीनता दिवस का बहिष्कार कर देश-भक्ति के प्रति खुली अवहेलना प्रकट करते हैं।

यह उसी परंपरा की कड़ी है जब अपने जमाने के सबसे बड़े मुस्लिम नेता मौलाना शौकत अली ने भारत पर अफगानिस्तान के हमले की सूरत में अफगानिस्तान का साथ देने की घोषणा की थी। तब कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर ने अनेक मुस्लिम महानुभावों से स्वयं पूछा था कि यदि कोई मुस्लिम हमलावर भारत पर हमला कर दे तो वे किस का साथ देंगे? उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उसी प्रसंग में प्रख्यात विदुषी और कांग्रेस अध्यक्षा रही एनी बेसेंट ने 1921 में नोट किया था, “मुसलमान नेता कहते हैं कि यदि अफगानिस्तान भारत पर हमला करता है तो वे आक्रमणकारी मुस्लिमों का साथ देंगे और उन से लड़ने वाले हिंदुओं का कत्ल करेंगे। हम यह मानने के लिए मजबूर हैं कि मुसलमानों का मुख्य लगाव मुस्लिम देशों से है, मातृभूमि से नहीं।”

इसलिए अयातुल्ला खुमैनी, बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, अहमदीनेजाद जैसी विदेशी हस्तियों के आह्वान पर सारी दुनिया में लाखों मुसलमानों का उठ खड़े होने के पीछे एक संगति है। यह प्रवृत्ति जाने या अनजाने अपने देश की उपेक्षा और विरोध भी करने के लिए तैयार रहती है। शर्त यह है कि मुद्दा इस्लामी हित होना चाहिए। इसी कारण आज पाकिस्तान में निरंतर तालिबानी हमलों के बावजूद वहीं तालिबानों का समर्थक मजबूत तबका भी है। वे अपने वतन से बढ़कर इस्लामी खलीफत के दीवाने हैं।

इतिहास और वर्तमान, सिद्धांत और व्यवहार के सभी आकलन यही दिखाते हैं कि इस्लामी निर्देशों को आधार बनाकर कोई हल नहीं मिल सकता। कहीं न कहीं इस्लाम को नमस्कार करके कहना पड़ेगा, कि हे देवता! आपकी एक सीमा है। जिसके बाद मानवता की सामान्य बुद्धि से सही और गलत का फैसला होता है। उस पर किसी किताब का हुक्म नहीं चलाया जा सकता, और नहीं चलना चाहिए। दुनिया के लोगों की आम सहमति से जहाँ उचित और अनुचित का निर्णय होना चाहिए। मगर वह घोषणा होने में अभी देर है। सब लोग किसी सऊदी गोर्बाचेव के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो दीवार पर लिखे सच को सच मान कर इस्लामी जगत में पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त का आरंभ करेगा।

मगर तब तक हम क्या करें? इस पर श्रीअरविंद ने कोई सौ वर्ष पहले कहा था कि चाटुकारिता से हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती। न इस्लाम की लल्लो-चप्पो से मुसलमानों को राष्ट्रीय धारा में जोड़ा जा सकता है। अंतरिम समाधान का सरल और सटीक उपाय भी श्रीअरविंद ने 1926 में ही बता दिया थाः “मुसलमानों को तुष्ट करने का प्रयास मिथ्या कूटनीति थी। सीधे हिंदू-मुस्लिम एकता उपलब्ध करने की कोशिश के बजाए यदि हिंदुओं ने अपने को राष्ट्रीय कार्य में लगाया होता तो मुसलमान धीरे-धीरे अपने-आप चले आते। …एकता का पैबंद लगाने की कोशिशों ने मुसलमानों को बहुत ज्यादा अहमियत दे दी और यही सारी आफतों की जड़ रही है।”

दुर्भाग्य से हिंदुओं ने तब शुतुरमुर्गी रास्ता अपनाया था। परिणाम 1947 में सामने आ गया। यदि फिर वही कोशिशें होती रहे, तब हम किस परिणाम की आशा कर सकते हैं!

शंकर शरण


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