शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

कुम्भ : परंपरा , इतिहास एंव वर्तमान

कुम्भ शब्द का अर्थ ही होता है अमृत का घड़ा यानि ज्ञान का घड़ा और कुम्भ प्रथा से स्पष्ट अभिप्राय है , ज्ञान के घड़े का सदुपयोग . हमारा राष्ट्र भारत आदिकाल से ही संतो , ऋषियों और मुनियों की धरती रही है . इस देश की धरती ने कालिदास जैसे मूर्खो को भी ज्ञानी बनाया है . भारत राष्ट्र पुरे विशव को अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञानरुपी प्रकाश की और लता रहा है . जिससे विशव गुरु से भी यह राष्ट्र विभूषित हुआ है . जिस समय यूरोपे के लोग जंगलो में निर्वस्त्र भ्रमण करते हुए कच्चा मास खाते थे . उस समय इस देश में गंगा सिन्धु के तटों पर बच्चे बच्चे वेड पुरानो को कंटस्थ करते थे . कुम्भ प्रथा भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है .

स्कंध पूरण और रुद्रयामल तंत्र और अन्य अनेक ग्रंथो में वर्णित है की किसी समय देश के 12 स्थानों पर कुम्भ का आयोजन होता था . वैदिक युग में सिमरिया (बिहार ) गुवाहाटी (असम ) कुरुक्षेत्र (हरयाणा ) पूरी (ओडिशा ) गंगा सागर (बंगाल ) द्वारिका (गुजरात ) कुम्भ्कोनाम (तमिलनाडु ) रामेश्वरम (तमिलनाडु ) हरिद्वार (उत्तराखंड ) प्रयाग (उत्तर प्रदेश ) उज्जैन (मध्य प्रदेश ) नाशिक (महाराष्ट्र ). लेकिन दुःख के साथ ये कहना पड़ता है की नियति के चक्र , विदेशी कुचक्रो और इन सबसे ऊपर परंपरा के प्रति भारतीयों की उदासीनता के कारण देश के सबसे बड़े इन आयाजनो में से मात्र चार (हरिद्वार , प्रयाग , उज्जैन एंव नाशिक ) को ही हम बचा पाए और 8 स्थानों पर लगने वाले कुम्भ पर्वो का लोप हो गया .

वैसे मूल संकल्पना की बात करें तो ज्योतिस में कुम्भ एक योग है . जिसमे खगोलीय रूप से जब सूर्य , चंद्रमा और ब्रहस्पति एक राशी में आते है तो कुम्भ योग बनता है , दरअसल मानव जीवन पर इन दोनों ग्रहों और चंद्रमा का विशेष प्रभाव मन गया है . और इस विशेस खगोलीय अवशता में गंगा में स्नान का महत्त्व 12 साल के स्नान के बराबर मन गया है . इन्ही बातो के आधार पर प्रत्येक वर्ष के 12 मास में भारत की एकता और अखंडता को ध्यान में रखते हुए देश के 12 स्थानों पर नदियों के किनारे कुम्भ का संकल्प लिया गया . वर्ष के 12 मास में 12 राशियाँ जिनमे से प्रत्येक 12 वर्ष पर ब्रहस्पति का शुभागमन होने से 12 -12 साल के बाद महाकुम्भ का आयोजन होने लगा . इस हिसाब से एक स्थान पर 12 साल के बाद महाकुम्भ का योग होने लगा और हर साल कहीं न कहीं महाकुम्भ का योग बनता रहा . 12 मास में एक कार्तिक मास भी है जिसमे तुला संक्रांति में ब्रहस्पति का योग होने से महाकुम्भ उद्गोषित हुआ .

भारत अगर आज कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी और गुजरात से ले कर गुहाटी तक एक राष्ट्र है तो ये किसी राजनितिक एंव प्रशासनिक व्यवश्ता के कारण नहीं बल्कि इस देश की धरम प्राण संस्कृति के कारण है . इतिहास में भी सैकड़ो राजाओ के होते हुए भी ये एक ही राष्ट्र था . इस धरम प्राण देश की तासीर को समझने वाले कहते है की कुम्भपर्व की परंपरा का लोप होना भारत की सबसे बड़ी हानी रही है . सिर्फ यही नहीं देश के अन्दर और बहार के प्रत्यक्ष और परोक्ष कई आघातों ने धर्म से जुड़े हमारे मूल्यों और परम्परो को प्रभावित करने की कोशिशे की और किसी रूप में ये आज भी जरी है . पर इतिहास सखी है की इस धर्म ध्वजा को उखाड़ने की कोशिशो को हर बार नाकामी ही मिली है .

समय चक्र के साथ बदलाव नियति का अभिन्न हिस्सा रहा है और परम्पराएं इससे अछूती नहीं रह सकती . कुम्भ पर्व के साथ भी ऐसा ही हुआ . कई कारणों से कालान्तर में सिर्फ चार स्थानों पर ही कुम्भपर्व बचा रह पाया और बाकि जगहों पर या तो इसका लोप हो गया या फिर परम्पराव में परिवर्तन हो गया .

वर्तमान में चार कुम्भो के बाद सबसे सटीक कुम्भ परंपरा कहीं पर बची है तो वो तमिलनाडु के कुम्भ्कोनम में विदमान है . जैसा की नाम से ही ज्ञान पड़ता है की कुम्भ के कारण ही इस जगह का नाम कुम्भ्कोनम पड़ा . कुम्भ्कोनम में आयोजित होने वाले कुम्भ को महामहम कहा जाता है . इसे दक्षिण भारत का कुम्भ भी कहा जाता है . अंतिम महामहम कुम्भ का आयोजन मार्च 2004 में हुआ था तथा अगले कुम्भ का आयोजन 2016 में होने वाला है .

महामहम कुम्भ का निर्धारण भी मुख्य चारो कुम्भो की तरह खगोलीय घटनाओ के आधार पर ही होता है . महामहम पर्व के दोरान लाखो हिन्दू कुम्भाकोनम में आते है . इस पर्व की शुरुआत पवित्र महामहम कुंड में इसनान से शुरू होती है . जिसके पश्चात् तीर्थयात्री पवित्र कावेरी के घटो पर जा कर उसमे दुबकी लगते है . इस पर्व के दौरान कुम्भाकोनम के प्राचीन मंदिरों से देवताओ की पालकियो को निकला जाता है . एंव पूरी की रथयात्रा की तर्ज पर एक विशाल रथयात्रा यहाँ भी निकली जाती है . धार्मिक ग्रंथो में कुम्भाकोनम को काशी से भी पवित्र बताया गया है . स्थानीय लोक मान्यताओ के अनुसार काशी सभी पापियों के पाप धोती है . और जो व्यक्ति काशी में पाप करता है उसके पाप केवल कुम्भाकोनम में धुलते है .

परन्तु ये भी एक विडंबना है की जहाँ एक और चार कुम्भो में पूरा देश उमड़ता है , वहीँ इस दक्षिण के कुम्भ के बारे में ज्यादा जानकारी भी लोगो को नहीं है . जबकि शास्त्रों के अनुसार इस कुम्भ का महत्त्व किसी भी तुलना में बाकि चारो कुम्भो से कम नहीं है . आज जरुरत 12 कुम्भो में से बचे हुए इस पांचवे कुम्भ को भी इसका पवित्र स्थान दिलाने की है . इस देश के संत समाज को इस बारे में जरुर सोचना चाहिए , खासकर अखाडा परिषद् और शंकराचार्यों को , ताकि कुम्भ परंपरा का पुनः प्रवाह उत्तर से दक्षिण की और हो सके . और इस देश की धरम प्रधान संस्कृति को पुनः इसका एतिहासिक गौरव प्रदान हो सके .

इस कुम्भ से न केवल धार्मिक एकता को बल मिलेगा अपितु इस देश की सांस्कृतिक एकता को भी बल मिलेगा . तथा उत्तर दक्षिण की खाई को भी पाटने में मदद मिलेगी. क्योंकि इस देश की एकता इस देश की धार्मिक संस्कृति में विदमान है न की किसी और में .



Vikas Singhal


सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

मोहनदास करमचंद गाँधी: वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार

अच्छा होता कि मोहनदास करमचंद गाँधी की विरासत का सम्यक मूल्यांकन करके उन के विचार व कर्म से दूध और पानी अलग कर के लाभ उठाया जाता। तब उन के महान कार्यों के साथ-साथ भयंकर गलतियों से भी सीख ले कर हम आगे बढ़ सकते थे। किंतु भारी अज्ञान, कांग्रेसी-वामपंथी दुष्प्रचार और राजनीतिक छल-छद्म जैसे कारणों से ऐसा न हो पाया। स्वतंत्र भारत में गाँधीजी की अंध-जयकार, चाहे वह भी खोखली ही क्यों न हो, से आगे शायद ही कुछ किया गया। जब उन के सकारात्मक कार्यों को ही किसी सत्ता या संगठन ने नीतिगत रूप देने की कोशिश नहीं की, तब उन की भूलों के प्रति कोई चेतना जगाने का काम क्या होता!

पर यह समझना आवश्यक है कि राजनीतिक समस्याओं पर ‘गाँधीगिरी’ जैसे विचार केवल हिन्दू आबादी के बीच सुरक्षित जीते हुए ही पनपते हैं। (क्या आपने कभी नोट किया है कि कश्मीर, पंजाब और बंगाल में गाँधी को चाहने वाले दीपक लेकर खोजने से भी शायद ही मिलें! क्यों?) गाँधी का जयकारा वहीं होता है जहाँ जयकारे करने वाला बुद्धिजीवी, नेता या प्रवचनकर्ता मजे से शांति, सुरक्षा के वातावरण में रह रहा हो। जिसे आस-पास की बेचारी भोली हिन्दू जनता द्वारा आदर-सम्मान पहले से प्राप्त हो – ऐसे समाज के बीच रहते हुए ही सेक्यूलर, सर्व-धर्म सम-भाव जैसे भ्रामक विचार पनपते हैं। हिन्दुओं के लिए भ्रामक! मुसलमान तो कभी इस भ्रम में पड़ नहीं सकते। उदार, सज्जन मुसलमान भी। क्योंकि उन का मजहब यह सब मानने की इजाजत ही नहीं देता। बल्कि इसे ‘कुफ्र’ कह कर उन मुस्लिमों को भी कठोरतम दंड देता है, जो इस की बात भी करते हैं। रुशदी से लेकर तसलीमा तक किसी का हश्र देख लीजिए। निरी उपेक्षा के रूप में अपने निवर्तमान राष्ट्रपति कलाम का भी हाल देखें। उन्हें कौन मुसलमान पूछता है!

इसीलिए भारत में सेक्यूलरिज्म की राजनीति अंततः हिन्दू-विरोध की राजनीति का ही दूसरा नाम बन गई। उस में इस्लामी कठमुल्लेपन, हिंसा, असंवैधानिक और अनैतिक माँगों तक का विरोध करने का साहस नहीं है। अतः सेक्यूलरिज्म ले-देकर केवल हिंदू भावना को लांछित करने तथा हिंदूवादियों को दंडित करने के काम आता है। अब इसे अनेक पत्रकार भी समझने लगे हैं, चाहे चाहे खुलकर स्वीकार करें या नहीं। सेक्यूलरिज्म की राजनीति अथवा गाँधीगिरी केवल हिन्दू जनता के बीच की जाती है। मुस्लिम जनता के बीच हरेक दल इस्लाम-परस्ती की ही प्रतियोगिता करता है, ताकि वोट मिलें। यही वोट-बैंक की राजनीति या सेक्यूलर राजनीति है। इस प्रतियोगिता में जो हारता है वह जानता है कि किस कारण हारे!

विगत लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और सीपीएम की हार का असली कारण उनसे मुस्लिमों का नजर फेर लेना ही था। वह नजर कांग्रेस को इनायत की गई, इस का संकेत स्वयं ‘राष्ट्रीय’ अल्पसंख्यक आयोग ने मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्रों के नतीजों का आकलन करके किया है। यानी असली बात सब जानते हैं। इस गंभीर सत्य को नोट कर लेना चाहिए कि कटिबद्ध, एकमुश्त वोट करने की प्रवृत्ति के साथ आबादी में बढ़ते प्रतिशत से मुस्लिम वोट-बैंक अब निर्णायक हो गया है। इसीलिए जिन दलों को मुस्लिम वोट नहीं मिले, वे भी मौन हैं। निरुपाय हैं। क्योंकि आगे भी उसी की आस करनी हैं।

आगामी चुनावों में भी पुनः सभी दल मुस्लिमों की कृपा-दृष्टि के लिए ही प्रतिद्वंदिता करेंगे। उसके लिए बढ़-चढ़ कर मुस्लिमों के दुःख, कष्ट और भावनाओं की माँग उठाएंगे। रंगनाथ मिश्रा, जे. बी. मुखर्जी या राजेन्द्र सच्चर जैसे मुखौटे खड़े करेंगे ताकि देश-घाती कदम उठाने की आड़ मिले। इस विचित्र वोट-बैंक राजनीति का आरंभ कब, कैसे हुआ था? वह वोट-बैंक, जो न केवल गैर-मुस्लिम राजनीतिकों के लिए सदैव छलना रहा है, बल्कि उसका भारत के हितों से एकदम विपरीत रिश्ता है। वह वोट-बैंक किसी राष्ट्रीय लक्ष्य की चिंता ही नहीं करता, क्योंकि उस का एक विशिष्ट, अंतर्राष्ट्रीय और विस्तारवादी उद्देश्य है।

भारत में वोट-बैंक राजनीति की लालसा के पहले शिकार मोहनदास करमचंद गाँधी थे। तुर्की के खलीफा की सत्ता बचाने के लिए हुए ‘खिलाफत जिहाद’ (एनी बेसेंट के शब्द) में भारतीय मुस्लिमों ने जबर्दस्त भागीदारी की। यह सन् 1916-20 की बात है। गाँधी उस संगठित, विशाल संख्या से मोहित हो गए। सोचा कि यदि ये अपने साथ हो जाएं तो अंग्रेजों से लड़ने में कितना बल मिलेगा! यह लोभ ही था, यह संपूर्ण परिस्थिति से स्पष्ट है। प्रथम, गाँधी को तुर्क-ऑटोमन साम्राज्य के खलीफा से कोई लगाव था, यह मानने का कोई कारण नहीं। दूसरे, उसी समय अंग्रेजों ने भारत में मौंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लाया था। जिसका कांग्रेस ने भी स्वागत कर सरकार से सहयोग का निर्णय किया था। इसीलिए, 1921 में अंग्रेजों के विरुद्ध आकस्मिक, अप्रत्याशित रूप से कोई असहयोग आंदोलन छेड़ने का कोई कारण न था। गाँधी के दबाव में कांग्रस ने वह आंदोलन मात्र खलीफत को समर्थन देने के लिए आरंभ किया था।

पर तुर्की में खलीफा रहे या जाए, इस से भारतीय हितों का दूर से भी संबंध न था। अतः खिलाफत नेताओं को भी कांग्रेस समर्थन की अपेक्षा न थी। दोनों की दो दिशा थी। एक तुर्की के लिए विश्व-इस्लामी आंदोलन था। जबकि कांग्रेस विदेशी शासकों से कुछ सुधारों की माँग कर रही थी। इसीलिए जब गाँधी ने खिलाफत से कांग्रेस को जोड़ना चाहा तो मोतीलाल नेहरू को छोड़कर कोई उन के साथ न था। क. मा. मुंशी के अनुसार सभी मानते थे कि गाँधी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे हैं “जिससे बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिन्दू-मुस्लिमों की राजनीतिक भागीदारी घटेगी”। स्वयं जिन्ना ने भी गाँधी को चेतावनी दी कि मतांध मौलवियों को प्रोत्साहन न दें। फिर, हिंदू डरते थे कि खलीफत को मदद देने से संगठित मुस्लिम शक्ति बढ़ेगी, जिससे वे अफगानिस्तान को आक्रमण का न्योता दे भारत पर कब्जा कर सकते हैं। यह संदेह खुली चर्चा में था, जिस पर एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्रीअरविन्द आदि अनेक मनीषियों ने भी सार्वजनिक चिंता प्रकट की थी। अतः अनेक कारणों से खलीफत आंदोलन के समर्थन का विरोध था।

पर गाँधी के दबाव में कांग्रेस उस में लग गई। असहयोग आंदोलन वस्तुतः खलीफत के लिए हुआ था। वह किसी स्वतंत्रता या स्वशासन का आंदोलन न था। तब, खलीफत खत्म होने पर पहले तो यहाँ मुसलमानों ने कई स्थानों पर अपना क्रोध हिन्दुओं पर उतारा। एक बार ‘जिहाद और काफिरों को मारने’ का आवाहन कर देने पर अधीर जिहादियों के लिए ईसाई और हिन्दू, दोनों ही एक जैसे दुश्मन थे। मौलाना आजाद सुभानी जैसे कई मुस्लिम नेता अंग्रेजों से भी बड़ा दुश्मन ‘बाईस करोड़ हिन्दुओं’ को मानते थे। वे भारत में फिर मुस्लिम शासन के ख्वाहिशमंद थे, जिस में उन्हें हिन्दू बाधक लगते थे।

फिर वही हुआ जिसका डर था। मुसलमानों ने अफगानों को भारत पर हमला करने का निमंत्रण दे दिया। अंग्रेजों का विरोध करने के नाम पर गाँधी इसमें भी ‘सहायता’ देने को राजी हो गए (यंग इंडिया, 4 मई 1921)। जिस तुर्की खलीफा को स्वयं उसके अपने देशवासियों ने सत्ताच्युत किया, उसके रंज में केरल में मोपला मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्लेआम, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों का ध्वंस और वीभत्स अत्याचार किए। यह जिहाद भावना से किया गया था। इसीलिए, गाँधीजी ने उसकी भर्त्सना के बजाए कहा कि “मुस्लिम भाइयों ने वह किया जो उन का धर्म उन्हें कहता है”, यानी इस्लामी नजरिए से गलत नहीं किया! इसीलिए, खिलाफत प्रकरण के बाद देश भर में गाँधीजी का मान बहुत घट गया था।

यह सब मात्र उस लालसा के कारण हुआ जिसने गाँधी जी को जी-जान से पकड़ लिया था। कि उन्हें मुस्लिम समर्थन हर कीमत पर लेना ही है। कि मुस्लिम उन्हें अपना नेता मान लें। यही तो वोट-बैंक राजनीति है! गाँधी के प्रियतम जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि गाँधीजी, “वह सब मानने के लिए तैयार रहते थे जो मुसलमान माँगें। वह उन्हें जीतना चाहते थे।” किंतु गाँधी यह सरल सी बात भुला बैठे कि मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रखने, और विरुद्ध प्रयोग करने के लिए अंग्रेज पहले से ही उन्हें अधिकाधिक विशिष्ट अधिकार देते रहे थे। यह 1906 से ही चल रहा था। उस में गाँधी कैसे पार पाते? पर लोभ-लालसा की तो विशेषता ही यही है कि वह मति हर लेती है।

अतएव खलीफत जिहाद का समर्थन केवल मुस्लिम समुदाय को लुभाने की चाह में किया गया था। उस में बुरी तरह पिटने के बाद भी गाँधी वही करते रहे। उसी चाह में कि मुसलमान उन्हें अपना नेता मान लें। लंदन में गोल-मेज कांफ्रेंस (1931) में यह खुल कर आया जब गाँधी ने कांग्रेस को हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की प्रतिनिधि बताने की कोशिश की। उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। तब गाँधी जी ने मुसलमानों को ‘ब्लैंक चेक’ देने की बात की, ताकि कांफ्रेंस में उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधि गाँधी का नेतृत्व मान लें। उस प्रस्ताव को भी मुस्लिम नेताओं ने हिकारत से ठुकरा दिया।

फिर इतिहास साक्षी है, गाँधी अपनी लालसा छोड़ न सके। हर मोड़ पर मुस्लिम नेताओं की सभी ऊल-जुलूल सिर-आँखों उठाते रहे। हत्यारे, गुंडे मुस्लिमों से भी प्रेम दर्शाते रहे। स्वामी श्रद्धानंद जैसे महान सपूत की हत्या करने वाले को अपना ‘भाई’ कहा, जैसे बाद में कलकत्ता में पाँच हजार हिन्दुओं का कत्लेआम कराने वाले सुहरावर्दी को भी। लाहौर के वीर, निष्ठावान सपूत महात्मा राजपाल को लांछित किया जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपमानित करने वाले एक मुस्लिम प्रकाशन का समुचित, संयमित, तथ्यपूर्ण उत्तर देते हुए इस्लाम को आइना दिखाया था। जिन राजपाल को पूरे लाहौर में सम्मान से देखा जाता था, उनके लिए गाँधी जी ने गंदे विशेषणों का प्रयोग करते हुए ‘प्रतिकार’ की माँग करते हुए मुसलमानों को स्पष्ट भड़काने तक का कार्य किया। अंततः एक जुनूनी जिहादी ने राजपाल की हत्या कर दी (1929)।

ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं जिस में गाँधी जी की दोहरी और सिद्धांतहीन नीति सबको एकदम साफ दिखती थी। यदि अपराधी मुस्लिम हो तो गाँधी सदैव उसी के पक्ष में खड़े दिखते थे, और एक से एक ऊल-जुलूल दलील देते थे। डॉ. अंबेदकर के अनुसार गाँधीजी ने हिन्दुओं के विरुद्ध मुस्लिमों द्वारा किए गए किसी अत्याचार, हिंसा और हत्याओं पर कभी एक शब्द न कहा।

यह कोई महात्मापन नहीं था। क्योंकि वही मोहनदास गाँधी कभी चंद्रशेखर आजाद, चंद्रसिंह गढ़वाली, भगत सिंह, मदनलाला ढींगरा और ऊधम सिंह जैसे महान सूपतों को भी भाई नहीं कहते थे। न उन के विश्वासों का आदर करते हुए कभी उदारता दिखाई। यहाँ तक कि गुरू गोविन्द सिंह और शिवाजी जैसे ऐतिहासिक महापुरुषों को भी गाँधी ने ‘दिगभ्रमित देशभक्त’ कहने तक की धृष्टता की। क्योंकि इन महापुरुषों ने अस्त्र-शस्त्र उठाकर समाज की सेवा की थी। इसलिए गाँधी उन्हें येन-केन-प्रकारेन खारिज करते थे। जबकि वही गाँधी मोपला के जिहादी हत्यारों और स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद जैसे जुनूनी, धोखेबाज कातिलों को भी अपना ‘भाई’ बताते थे। तब अहिंसा का सिद्धांत एकदम पीछे चला जाता था और इस्लामी कृत्य वीभत्स, हिंसक होकर भी आदरणीय हो जाता था। यह सिद्धांतहीनता वही लालसा थी जो आज सिमी, इंडियन मुजाहिदीन, हुर्रियत आदि के पक्ष में खड़े होने वाले हिन्दू सेक्यूलरपंथी नेताओं में है।

इस विचित्र लालसा को मुस्लिम भी समझते थे। इसलिए वे गाँधी पर कभी विश्वास नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यदि कोई हिन्दू नेता हिन्दुओं का हित और अपने ‘अहिंसा’ सिद्धांत को भी छोड़कर सदैव मुसलमानों का पक्ष लेता है तो जरूर कोई असहज बात है! अतः वह भरोसे के काबिल नहीं। यह संयोग नहीं कि जिन्ना समेत अनेक मुस्लिम नेताओं का गाँधी से अधिक सहज संबंध पंडित मालवीय या स्वामी श्रद्धानंद जैसे नेताओं से रहा, जो कृत्रिम और विचित्र बातें न कहकर स्वभाविक हिन्दू विचार रखते थे।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि गाँधी को मुस्लिम समर्थन कभी नहीं मिला। हिन्दू जनता को बारं-बार बलिवेदी पर चढ़ा देने के बाद भी नहीं मिला। पर उस चाह ने गाँधी का पीछा न छोड़ा। खिलाफत से लेकर देश विभाजन, और उसके बाद तक गाँधी उसी भावना से चलते रहे। उन्हें कभी अनुकूल परिणाम न मिला। क्योंकि डॉ. अंबेदकर के शब्दों में, “मुसलमानों की राजनीतिक माँगें हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।” उन्हें पूरा करते जाने के चक्कर में गाँधी ने देश का विभाजन तक करा लिया। उस के बाद भी पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल के सिखों-हिन्दुओं को राम भरोसे छोड़ दिया। पूछने पर कहा कि ‘खुशी-खुशी जान दे दें और हमला करने वाले मुसलमानों का प्रतिकार न करें’।

निश्चय ही, वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार गाँधी थे। देश की हानि के सिवा इस राजनीति ने कभी कुछ नहीं दिया है। यह मानना कुछ लोगों को कठिन लगेगा, क्योंकि इतिहास का पूर्ण मिथ्याकरण कर दिया गया है। किंतु 1919 से 1947 तक की घटनाओं के सविस्तार अध्ययन से यही निष्कर्ष मिलेगा। उस दौरान अनेकानेक नेताओं, मनीषियों ने गाँधी को चेतावनी दी थी। पर वह उस मोह से उबर नहीं सके। जब गाँधी जैसे व्यक्ति उस से पिट गए तब लालू, मुलायम, चंद्र बाबू और वाजपेयी आदि को उस से क्या मिलना था!

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

राजनीतिक जजिया की तैयारी

प्रस्तावित ‘सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक (न्याय और क्षतिपूर्ति मिलने) विधेयक, 2011’ खुले तौर पर बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक समुदायिक आधार पर बनाया गया है। सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर यह एक ऐसे कानून का प्रस्ताव है, जो किसी आगामी सांप्रदायिक हिंसा के लिए सदैव हिंदुओं को दोषी मानकर चलता है। किसी अज्ञात व्यक्ति की शिकायत पर भी कोई हिन्दू गिरफ्तार होगा, यदि शिकायत सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की हो। ऐसी शिकायत किसी ‘अल्पसंख्यक’ पर लागू नहीं होगी। अतः आरंभ से ही किसी हिन्दू के दोषी होने की संभावना मानकर चली जाएगी। उसकी कोई टीका-टिप्पणी भी सांप्रदायिक हिंसा उकसाने जैसी बात मानी जाएगी। अर्थात् प्रस्तावित कानून स्थाई रूप से हिन्दुओं के मुँह पर सदा के लिए ताला लगा देगा।

यह कानून वर्तमान न्याय दर्शन के भी विपरीत होगा। यह दर्शन मानता है कि जब तक किसी का अपराध साबित न हो, उसे निर्दोष समझना चाहिए। प्रस्तावित कानून मानेगा कि हर हिन्दू सांप्रदायिक हिंसा का दोषी है, जब तक कि वह स्वयं को निर्दोष न साबित कर ले। किंतु यही मान्यता अल्पसंख्यकों पर लागू नहीं होगी। क्योंकि प्रस्तावित कानून केवल उन्हें ही सांप्रदायिक हिंसा का पीड़ित मानकर चलता है।

तदनुरूप देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाली एक विशेष अथॉरिटी होगी। यह अथॉरिटी सांप्रदायिक हिंसा रोकने में विफलता आदि नाम पर राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर सकेगी। इस अथॉरिटी में ‘अल्पसंख्यकों’ अधिक संख्या में रखे जाएंगे। क्योंकि यह कानून स्थाई रूप से मानेगा कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक हिंसा निरपवाद रूप से हिन्दू ही करेंगे। अतः किसी सांप्रदायिक घटना की जाँच, विचार, तथा निर्णय करने वाली इस सुपर अथॉरिटी में गैर-हिन्दू ही निर्णायक संख्या में होने चाहिए। इसमें यह मान्यता निहित है कि हिन्दू तो हिन्दू दंगाई के लिए पक्षपात करेगा, किन्तु गैर-हिन्दू पक्षपात नहीं कर सकता!

स्वतंत्र भारत में सामुदायिक भेद-भाव के आधार पर बनने वाला यह सबसे भयंकर कानून होगा। न्याय, सच्चाई और संविधान के साथ ऐसा मजाक करने वालों को क्या भारत में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास पता भी है?

भारतीय संसद में ही प्रस्तुत गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन् 1968 से 1970 के बीच हुए चौबीस दंगों में तेईस दंगे मुस्लिमों द्वारा आरंभ किए गए थे। (इंडिया टुडे, 10 अप्रैल 2002)। यह रिपोर्ट कांग्रेस शासन में ही आई थी। तब से हालत बदतर ही हुए। हालिया सांप्रदायिक हिंसाओं की भी वही कहानी है। गोधरा से लेकर मऊ, और उदालगिरि से लेकर मराड तक सांप्रदायिक हिंसा किस समुदाय ने आरंभ की थी? यहाँ तक कि विदेशों में घटी घटनाओं, किन्ही अमेरिकी या यूरोपीय द्वारा दिए बयान या किए गए काम से क्रुद्ध होकर यहाँ भारत में सांप्रदायिक हिंसा आरंभ करने का काम कौन करता है? चाहे वह अमेरिका में पादरी जेरी फेलवेल का बयान (2002) हो या डेनमार्क में कोई कार्टून बनना (2005), हर बार यहाँ बेचारे हिन्दुओं को संगठित हिंसा का भयानक दंश झेलना पड़ता है।

यही स्वतंत्रता-पूर्व भी होता था, जब तुर्की में खलीफत खत्म होने पर यहाँ मोपला, मुलतान, ढाका तथा अनेक स्थानों पर हिन्दुओं को क्रूरता पूर्वक मारा गया। वह सब देखकर महात्मा गाँधी जैसे व्यक्ति को भी सन् 1924 में कहना पड़ा कि “मुसलमान प्रायः आक्रामक होता है और हिन्दू कायर”। कि यह पुरानी परंपरा है। सांप्रदायिक हिंसा पर यह सचाई समकालीन इतिहास है। जिसे गाँधी के साथ-साथ बंकिम चंद्र, श्रीअरविन्द, एनी बेसेंट, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाबासाहेब अंबेदकर जैसे अनेकानेक परम सत्यनिष्ठ महापुरुष नोट कर चुके हैं। अतः यदि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की सचमुच चिंता है, तब पहले देश में हुए प्रत्येक दंगे और हिंसा की पूरी जानकारी देश के सामने रखी जाए। गिना जाए कि एक-एक दंगे की शुरुआत कैसे हुई, किसने की। तब स्वतः तय हो जाएगा कि ‘समुदाय’ के आधार पर हिंसा की चिंता कैसे करनी चाहिए।

सच यह है कि बहुसंख्यक होते हुए भी हिन्दुओं का ही पीड़ित होना होना एक पुरानी स्थिति है। गाँधीजी ने उसी को अपनी तरह कहा था। यह केवल मुगल काल की बात नहीं, जब हिन्दुओं पर औरंगजेब जैसे भयंकर अत्याचारी ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय के ही थे। ब्रिटिश शासन में भी, बीसवीं सदी में, यह कथित अल्पसंख्यक समुदाय ही बहुसंख्यकों का उत्पीड़क था। स्वतंत्रता पूर्व भारत में सांप्रदायिक दंगों का पूरा इतिहास इस की गवाही देता है। डॉ. अंबेदकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1940) में अनगिनत दंगों का उल्लेख किया है। इस गंभीर पुस्तक के अध्याय 7 से 12 तक पढ़कर स्वतः स्पष्ट हो रहेगा कि भारत में समुदाय के आधार पर कौन उत्पीड़क रहा है, और कौन उत्पीड़ित।

यह केवल स्वतंत्र आकलन की ही चीज नहीं। असंख्य मुस्लिम नेताओं ने स्वयं बारं-बार अहंकार पूर्वक हिन्दुओं को धमकी दी थी और आज भी देते हैं। सन् 1926 में मौलाना अकबर शाह खान ने महामना मदन मोहन मालवीय को सार्वजनिक चुनौती दी थी कि ‘पानीपत का चौथा युद्ध’ आयोजित किया जाए। उसमें भारत की तात्कालिक जनसंख्या के अनुपातिक हिसाब से 700 मुस्लिम रहें और 2200 हिन्दू। मौलाना ने घमंड से यहाँ तक कहा कि वे लड़ाई के लिए साधारण मुसलमान ही लाएंगे, पठान या अफगान नहीं, जिनसे हिन्दू ‘प्रायः आतंकित रहते हैं।’ मौलाना के अनुसार सात सौ साधारण मुस्लिम बाइस सौ हिन्दुओं को यूँ ही कुचल देंगे। यह कोई आपवादिक प्रसंग नहीं था। स्वतंत्रता-पूर्व यहाँ दंगे निपट एकतरफा होते थे, जिनका मतलब ही था हिन्दुओं का संहार। यहाँ तक कि जिन्ना ने इस तथ्य का उपयोग भारत-विभाजन मनवाने के लिए भी किया था। कि यदि पाकिस्तान की माँग न मानी गई तो मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ (कलकत्ता, 1946) जैसा हिन्दुओं का सामूहिक संहार और किया जाएगा।

जिन्ना के अपने शब्दों में, “अब हिन्दुओं का भी हित इसी में है कि वे पाकिस्तान की माँग स्वीकार कर लें, चाहे तो केवल हिन्दुओं को कत्लेआम और विनाश से बचाने के लिए ही।” (लियोनार्द मोसले, द लास्ट डेज ऑफ द ब्रिटिश राज, पृ. 48)। क्या ऐसे अहंकारी बयान स्वयं नहीं बताते कि समुदाय के आधार पर हिंसा कौन करता और कौन झेलता है? जवाहरलाल नेहरू जैसे मुस्लिम-प्रेमी ने भी मुस्लिम लीग की पहचान यही बताई थी कि वह सड़को पर हिन्दू-विरोधी हिंसा करने के सिवा और कुछ नहीं करती। मौलाना अकबर से लेकर जिन्ना और सुहरावर्दी तक, यह सब कहने, करने वाले तब भी अल्पसंख्यक समुदाय के ही थे। ऐसे अगिनत प्रमाणों से यह भारत में ‘सांप्रदायिक दंगों’ के इतिहास की सचाई जरूरी तौर पर समझ ली जानी चाहिए।

विभाजन के बाद के भारत में भी स्थिति मूलतः नहीं बदली। कश्मीर से पूर्णतः और असम, केरल में अंशतः केवल हिन्दू ही मार भगाए गए। क्या स्वतंत्र भारत में एक भी उदाहरण है, जहाँ मुस्लिम या ईसाई किसी राज्य या जिले से समुदाय के रूप में निकाले, मारे गए? अभी भारत में असंख्य ऐसे इलाके हैं जहाँ पुलिस भी जाने से डरती है। इन में कोई हिन्दू बस्ती नहीं। कई मीडिया कार्यालयों को जहाँ-तहाँ हिंसा और आगजनी झेलनी पड़ी है, फिर भी उलटे उन्होंने ही माफी माँगी। यह प्रसंग भी सदैव एक अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा है।

इसलिए आज तक जितनी सांप्रदायिक हिंसा हुई, सब के आँकड़े, जाँच-रिपोर्ट और अदालती कार्रवाइयों का पूरा हिसाब सामने रखें। यह सभी दंगे कैसे, किस घटना से भड़के। तब देखा जाए कि कौन समुदाय, किस बात का और कितना दोषी है। यदि समुदाय के आधार पर ही कानून बनना हो, तो पहले एक श्वेत-पत्र लाकर पिछले सौ वर्ष या चौंसठ वर्षों में हुई सभी हिंसा का ठोस विवरण दिया जाए। तभी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदायों के आधार पर सांप्रदायिक-हिंसा निरोधक कानून बनाने की कैफियत हो सकती है। अन्यथा यह विशुद्ध मनमानी ही होगी।

जिस अल्पसंख्यक समुदाय में देश का विभाजन करा देने, और हिंसा के बल पर इलाके दर इलाके खाली कराने की सामर्थ्य हो, वह कतई पीड़ित, विवश या भयाकुल नहीं माना जा सकता। आज भी भारत में ईमाम बुखारी, सैयद शहाबुद्दीन, अबू आजमी, हाजी याकूब, अहमद कादरी, अफसर खान और मोअज्जम खान जैसे अनेकानेक मुस्लिम नेताओं और दीनदार अंजुमन, स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), इंडियन मुजाहिदीन आदि विभिन्न प्रकार के मुस्लिम संगठनों की भाषा कड़वी सचाई की चुगली करती है। अहमद कादरी और मोअज्जम खान आंध्र विधान सभा के सदस्य होते हुए किसी को खुले आम मार डालने की कोशिश करते हैं और ‘आइंदा न चूकने’ के बयान देते हैं। और कानून-व्यवस्था तंत्र उन्हें टोकने तक का साहस नहीं रखता! हत्या के प्रयास में उन्हें गिरफ्तार और सजा देने की तो बात ही दूर रही। देश की राजधानी में ईमाम बुखारी केंद्रीय मंत्रियों से लेकर उच्च न्यायालय, यहाँ तक कि पूरे देश को भी धमकियाँ देते रहे हैं। अबू आजमी संसद में खड़े होकर पुनः देश के विभाजन जैसी धमकी दे चुके हैं। अनेक मौलाना और ईमाम भारत को निशाना बनाने वाले विदेशी इस्लामी आतंकवादियों तक की खुली जयकार करते रहे हैं। हमारे ‘अल्पसंख्यक’ नेताओं की भाषा से ही पता चल जाता है कि कौन कितने पानी में है।

यह कोई स्थिर स्थिति भी नहीं। दिनो-दिन इस्लामी दबाव भारतीय सामाजिक-राजनीतिक-कानूनी-शैक्षिक आदि क्षेत्रों में बढ़ रहा है। प्रस्तावित कानून इसी का संकेत है। हमारे अधिकांश नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का पूरा हाल जानते हैं। पर बोलते कुछ और हैं! एक विचित्र दुरभिसंधि जो मानो पूरे देश को शुतुरमुर्ग बनाने पर तुली है।

फिर भी, कभी-कभी इस्लामी दबाव से अकुलाहट के कारण सच मुँह से निकल जाता है। जुलाई 2003 में केरल के तात्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता ए. के. एंटोनी, जो स्वयं ईसाई समुदाय से हैं, ने इसे स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया था। उन के अनुसार, “केरल में अल्पसंख्यक शक्तिशाली रूप से संगठित हैं। उन्होंने दबाव से बहुत अधिक सुविधाएं और लाभ उठा लिए हैं। राज्य के राजनीतिक, प्रशासनिक स्तर में उनका दबदबा है। यह उचित नहीं है। मुसलमानों को इससे होने वाले हिन्दू असंतोष पर ध्यान देना चाहिए और संयम बरतना चाहिए।” (इंडिया टुडे, 28 जुलाई 2003)।

श्री एंटोनी ने केरल की बात की थी, किंतु पूरे देश में यह ‘अनुचित’ मुस्लिम दबाव महसूस किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुलदीप सिंह ने भी एक बार कहा था, “भारत में सेक्यूलरिज्म को सांप्रदायिकता सहन करने में, उस का बचाव करने में बदल कर रख दिया गया है। अल्पसंख्यकों को समझना होगा कि वे उस संस्कृति, विरासत और इतिहास से नाता नहीं तोड़ सकते, जो हिन्दू जीवन शैली से मिलता-जुलता है।… अल्पसंख्यकवाद को राष्ट्र-विरोध का रूप लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती।” इस कथन से स्पष्ट दीखता है कि अल्पसंख्यकवाद राष्ट्र-विरोध का रूप लेता रहा है!

उदाहरणार्थ, मार्च 2006 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा के दौरान यहाँ विभिन्न शहरों में जोरदार प्रदर्शन हुए कि भारत की विदेश नीति अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी चाहत के अनुरूप ढाली जाए। माँग इतनी जोरदार थी कि राष्ट्रीय जिम्मेदारियाँ उठाए हमारे कई नेता बुश की पूरी भारत यात्रा के दौरान गायब हो रहे। ऐसे सत्ताधारी नेता भी जिन पर ठीक देश के वैदेशिक संबंधों को सँभलाने की जिम्मेदारी थी! मगर जॉर्ज बुश के साथ उनकी फोटो न आ जाए, इस डर से वे अपनी ड्यूटी छोड़कर अंतर्ध्यान हो गए। यह किस समुदाय से डर था?

ऐसी लज्जाजनक स्थिति भारत में ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय के पीड़ित होने या भेदभाव झेलने का संकेत नहीं देती। यह तो एक ऐसी दबंगई का प्रमाण है जिससे सभी डरते हैं। नेता, पत्रकार, व्यापारी, उद्योगपति सभी। चाहे वे लज्जावश इसे स्वीकार न करें, किंतु विदेशी भी यहाँ की सच्चाई समझते हैं। सऊदी अरब के विदेश मंत्री सऊद अल-फैजल ने एक बार स्पष्ट कहा भी कि भारतीय मुसलमान कोई अल्पसंख्यक नहीं हैं, जिन्हें किसी बाहरी मदद की जरूरत हो, और वे स्वयं सशक्त और समर्थ हैं।

सन् 2006 में यहाँ सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया कि देश में शरीयत कोर्ट जैसा समानांतर इस्लामी कानून-तंत्र अवैध रूप से फैलाया जा रहा है। इमराना, जरीना, गुड़िया आदि युवतियों पर उलेमा के बेधड़क अत्याचार के संदर्भ में यह बात उठी थी। कोर्ट ने कहा कि व्यवस्थित प्रयास हो रहा है कि शरीयत कोर्टों को पहले चुप-चाप इतना विस्तृत रूप दे दिया जाए कि गंभीर प्रश्न उठने पर कोर्ट और सरकार के पास इस स्थिति को अब ‘हो चुकी घटना’ (fait accompli) मानने के सिवा कोई चारा न रहे। जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर पूछा तो हमारे शासक कुछ स्पष्ट कह नहीं पाए। (सेंट्रल क्रॉनिकल, 28 मार्च 2006)। आए दिन ऐसे समाचार आते हैं जिस में मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि संविधान या न्यायालयों की खुली उपेक्षा करते हैं – चाहे वह वैयक्तिक विषय हों या सामाजिक, कानून-व्यवस्था का प्रश्न हो या जब-तब धमकाऊ बयानबाजियाँ।

कहीं नहीं प्रतीत होता, कि सैयद शहाबुद्दीन से लेकर ईमाम बुखारी, हाजी याकूब या यह या वह अब्दुल्ला जैसे विभिन्न कद और मिजाज के अल्पसंख्यक न्यायपालिका की भी परवाह करते हों। क्या यह ‘अल्पसंख्यक’ की वही छवि है जो प्रस्तावित सांप्रदायिक कानून में गढ़ी गई है? वास्तविक छवि उलटी है। भारत में मुस्लिम समुदाय की संगठित शक्ति से राजनीतिक दल, न्यायपालिका, मीडिया सभी आशंकित रहते हैं। उचित कार्य से भी कतराते हैं यदि मुस्लिमों के भड़कने का खतरा हो। जबकि हिन्दू धर्म से लेकर हिन्दू संगठनों, नेताओं को भी जब चाहे दो लात लगाने से किसी को रंच मात्र संकोच नहीं होता। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के सबंध में यह कड़वा सत्य सभी जानते हैं। उसी तरह व्यवहार भी करते हैं।

किसी बाहरी व्यक्ति को यह अटपटा लग सकता है कि किसी लोकतंत्र में ऐसी विचित्र स्थिति हो। किंतु बात अटपटी है नहीं। हिन्दुओं की धर्म-चेतना व्यक्तिगत और अंतर्मुखी है। उन्होंने कभी अपने को मत-विश्वास पर संगठित नहीं किया, न किसी को मतांतरित करने का कोई उद्देश्य ही रखा। न साम्राज्यवादी विस्तार की सोची। अतः विभिन्न कारणों से हिन्दू अपने-आपको एक समुदाय के रूप में देखते ही नहीं। अधिक से अधिक उनमें कई लोग अपनी जाति भर से जुड़ाव महसूस करते हैं।

इसलिए व्यवहारतः प्रत्येक हिन्दू स्वयं को एक प्रकार अल्पसंख्यक ही समझता है। पूछ कर देखें तो हरेक हिन्दू को कोई न कोई शिकायत ही है। कोई जातिगत दुर्व्यवहार से पीड़ित महसूस करता है, तो कोई आरक्षण से, कोई सत्ता में पर्याप्त भागीदारी न मिलने से, तो कोई विचारधारा के नशे में हिन्दू-धर्म को ही रोज जली-कटी सुनाता है। ऐसी विविध भावनाओं से ग्रस्त हिन्दू नितांत विखंडित हैं। वे बहुसंख्यक के रूप में न महसूस, न व्यवहार करते हैं। इसीलिए सभी राजनीतिक दल ‘अल्पसंख्यक’-मोह से ग्रस्त हैं, क्योंकि उन्हें बहुसंख्यक की दयनीय स्थिति मालूम है।

दूसरी ओर, कथित अल्पसंख्यकों के मजहबी विचार सचेत संगठन, राजनीतिक विस्तार, और इस के लिए छल-प्रपंच तक में विश्वास रखते हैं। यूरोप में चलते ईसाई-मुस्लिम संवाद में उन के प्रतिनिधि कहते भी हैं, कि वे कोई ‘शाकाहारी’ रिलीजन नहीं। कि लड़ने-भिड़ने और सत्ता के लिए टकराने की उन की परंपरा है। यह भाव भारत के अल्पसंख्यक नेताओं में भी है। उन की रणनीतियाँ परिस्थितिवश भले भिन्न हों, किंतु संगठित आक्रामक मुद्रा में रहना उनका स्वभाव है। इसीलिए पोप दिल्ली में खड़े होकर (नवंबर 1999) पूरे भारत को ईसाइयत में धर्मांतरित करने, ‘आत्माओं की फसल’ काटने का खुला आह्वान करते हैं। तो कोई मुस्लिम संसद में खड़े होकर पुनः देश-विभाजन की धमकी देते हैं। और कोई हिन्दू प्रतिक्रिया नहीं होती। क्योंकि हिन्दू कह कर कोई संगठित समूह है ही नहीं!

यह महत्वपूर्ण तथ्य स्वयं हमारी सुप्रीम कोर्ट ने भी नोट किया है। ‘बाल पाटिल तथा अन्य बनाम भारत सरकार’ (2005) मामले में निर्णय देते हुए न्यायाधीशों ने स्पष्ट लिखा, “ ‘हिन्दू’ शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। यदि आप हिन्दू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूँढना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर ही पहचाना जा सकता है। …जातियों पर आधारित होने के कारण हिन्दू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त है। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है। जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिन्दुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं।”

उक्त निर्णय में 1947 में देश के विभाजन का उल्लेख करते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंततः देश के टुकड़े हुए। इसीलिए न्यायाधीशों ने निर्णय में चेतावनी भी दी, “यदि मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन, शिक्षा, शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के ‘अल्पसंख्यक’ होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।” न्यायाधीशों ने ‘धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने’ के प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्ति बढ़ा सकती है।

क्या सोनिया जी की निजी ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्’ अपने घातक प्रस्तावों से यही काम नहीं कर रही है? अधिकांश राजनीतिक दल भी वही करते हैं। अभी-अभी हुई राष्ट्रीय एकता परिषद् मीटिंग में कइयों ने विधेयक का विरोध किया, किंतु केंद्र-राज्य संबंध विकृत होने के आधार पर। इस के हिन्दू-विरोधी होने की बात शायद ही किसी ने की। क्योंकि भारतीय राजनीति में ‘अल्पसंख्यक’-वाद एक कैंसर सा रोग बन चुका है। देश के संसाधनों पर ‘मुस्लिमों का पहला अधिकार’ जैसी विभेदकारी प्रस्थापनाओं के बाद अब मजहब-आधारित आरक्षण देने की तैयारी चल ही रही है। रामविलास पासवान जैसी हस्ती ने केंद्रीय मंत्री पद से टेलीवीजन पर कहा था, “मैंने अफसरों को कह दिया है कि यदि कोई आवेदन किसी अल्पसंख्यक का है तो उसे तुरत स्वीकृत कर दो। नियम आदि मैं देख लूँगा।”

इसलिए बात यह है कि मुस्लिम समुदाय की विशेष सेवा करने की प्रतियोगिता में विभिन्न नेता और राजनीतिक दल न्याय और नैतिकता ही नहीं, संविधान एवं कानून को भी ताक पर रखने लगे हैं। क्योंकि मुस्लिम समुदाय ही सशक्त समुदाय है। मुस्लिम नेता भी यह बखूबी जानते हैं। प्रस्तावित विधेयक उन की आक्रामक शक्ति कई गुने बढ़ाने वाला है। फिर परिणाम क्या होगा, इस के लिए सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय पढ़ लें।

वस्तुतः, सदियों से भारत में हिन्दू ही दबे-कुचले विवशता में जी रहे हैं। आज भी उन क्षेत्रों में तो उन्हें हिंसा, अपमान झेलना ही पड़ता है जहाँ उनकी संख्या कम है। परन्तु पूरे देश में उन के हितों की खुली अनदेखी होती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार भारत में ‘अल्पसंख्यक’ की अवधारणा प्रांतीय आधार पर की जाती है। किंतु जम्मू-कश्मीर या नागालैंड में हिन्दुओं को उजाड़ ही दिया गया, किसी सुविधा की तो बात ही क्या! उसकी तुलना दूसरे अल्पसंख्यकों को मिलने वाली विशेष सुविधाओं से करें। यहाँ किसी भी प्रांत, यानी पूरे देश में, ‘अल्पसंख्यक’ रूपी मुस्लिमों और ईसाइयों को कई ऐसी सुविधाएं और विशेषाधिकार प्राप्त हैं जो हिन्दुओं, कथित बहुसंख्यकों को नहीं हैं। यह स्थिति पूरे विश्व में कहीं नहीं है!

इसलिए कानून तो वह बनना चाहिए तो इस राजनीतिक, कानूनी असंतुलन को दूर करे। बहुसंख्यकों को भी वह अधिकार मिले, जो अल्पसंख्यकों को हैं। जैसे शिक्षा में अपने धर्म-ग्रंथों को शामिल करने, मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने, आदि।

मगर सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर बनने वाला यह प्रस्तावित कानून हिन्दुओं को एक सीढ़ी और नीचे गिराएगा। यह मूर्खतावश हो रहा है या षड्यंत्र-पूर्वक, पता नहीं। किन्तु ऐसा विभेदकारी कानून बनने का परिणाम निस्संदेह अनिष्टकर होगा।

शंकर शरण