शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

कुम्भ : परंपरा , इतिहास एंव वर्तमान

कुम्भ शब्द का अर्थ ही होता है अमृत का घड़ा यानि ज्ञान का घड़ा और कुम्भ प्रथा से स्पष्ट अभिप्राय है , ज्ञान के घड़े का सदुपयोग . हमारा राष्ट्र भारत आदिकाल से ही संतो , ऋषियों और मुनियों की धरती रही है . इस देश की धरती ने कालिदास जैसे मूर्खो को भी ज्ञानी बनाया है . भारत राष्ट्र पुरे विशव को अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञानरुपी प्रकाश की और लता रहा है . जिससे विशव गुरु से भी यह राष्ट्र विभूषित हुआ है . जिस समय यूरोपे के लोग जंगलो में निर्वस्त्र भ्रमण करते हुए कच्चा मास खाते थे . उस समय इस देश में गंगा सिन्धु के तटों पर बच्चे बच्चे वेड पुरानो को कंटस्थ करते थे . कुम्भ प्रथा भी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है .

स्कंध पूरण और रुद्रयामल तंत्र और अन्य अनेक ग्रंथो में वर्णित है की किसी समय देश के 12 स्थानों पर कुम्भ का आयोजन होता था . वैदिक युग में सिमरिया (बिहार ) गुवाहाटी (असम ) कुरुक्षेत्र (हरयाणा ) पूरी (ओडिशा ) गंगा सागर (बंगाल ) द्वारिका (गुजरात ) कुम्भ्कोनाम (तमिलनाडु ) रामेश्वरम (तमिलनाडु ) हरिद्वार (उत्तराखंड ) प्रयाग (उत्तर प्रदेश ) उज्जैन (मध्य प्रदेश ) नाशिक (महाराष्ट्र ). लेकिन दुःख के साथ ये कहना पड़ता है की नियति के चक्र , विदेशी कुचक्रो और इन सबसे ऊपर परंपरा के प्रति भारतीयों की उदासीनता के कारण देश के सबसे बड़े इन आयाजनो में से मात्र चार (हरिद्वार , प्रयाग , उज्जैन एंव नाशिक ) को ही हम बचा पाए और 8 स्थानों पर लगने वाले कुम्भ पर्वो का लोप हो गया .

वैसे मूल संकल्पना की बात करें तो ज्योतिस में कुम्भ एक योग है . जिसमे खगोलीय रूप से जब सूर्य , चंद्रमा और ब्रहस्पति एक राशी में आते है तो कुम्भ योग बनता है , दरअसल मानव जीवन पर इन दोनों ग्रहों और चंद्रमा का विशेष प्रभाव मन गया है . और इस विशेस खगोलीय अवशता में गंगा में स्नान का महत्त्व 12 साल के स्नान के बराबर मन गया है . इन्ही बातो के आधार पर प्रत्येक वर्ष के 12 मास में भारत की एकता और अखंडता को ध्यान में रखते हुए देश के 12 स्थानों पर नदियों के किनारे कुम्भ का संकल्प लिया गया . वर्ष के 12 मास में 12 राशियाँ जिनमे से प्रत्येक 12 वर्ष पर ब्रहस्पति का शुभागमन होने से 12 -12 साल के बाद महाकुम्भ का आयोजन होने लगा . इस हिसाब से एक स्थान पर 12 साल के बाद महाकुम्भ का योग होने लगा और हर साल कहीं न कहीं महाकुम्भ का योग बनता रहा . 12 मास में एक कार्तिक मास भी है जिसमे तुला संक्रांति में ब्रहस्पति का योग होने से महाकुम्भ उद्गोषित हुआ .

भारत अगर आज कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी और गुजरात से ले कर गुहाटी तक एक राष्ट्र है तो ये किसी राजनितिक एंव प्रशासनिक व्यवश्ता के कारण नहीं बल्कि इस देश की धरम प्राण संस्कृति के कारण है . इतिहास में भी सैकड़ो राजाओ के होते हुए भी ये एक ही राष्ट्र था . इस धरम प्राण देश की तासीर को समझने वाले कहते है की कुम्भपर्व की परंपरा का लोप होना भारत की सबसे बड़ी हानी रही है . सिर्फ यही नहीं देश के अन्दर और बहार के प्रत्यक्ष और परोक्ष कई आघातों ने धर्म से जुड़े हमारे मूल्यों और परम्परो को प्रभावित करने की कोशिशे की और किसी रूप में ये आज भी जरी है . पर इतिहास सखी है की इस धर्म ध्वजा को उखाड़ने की कोशिशो को हर बार नाकामी ही मिली है .

समय चक्र के साथ बदलाव नियति का अभिन्न हिस्सा रहा है और परम्पराएं इससे अछूती नहीं रह सकती . कुम्भ पर्व के साथ भी ऐसा ही हुआ . कई कारणों से कालान्तर में सिर्फ चार स्थानों पर ही कुम्भपर्व बचा रह पाया और बाकि जगहों पर या तो इसका लोप हो गया या फिर परम्पराव में परिवर्तन हो गया .

वर्तमान में चार कुम्भो के बाद सबसे सटीक कुम्भ परंपरा कहीं पर बची है तो वो तमिलनाडु के कुम्भ्कोनम में विदमान है . जैसा की नाम से ही ज्ञान पड़ता है की कुम्भ के कारण ही इस जगह का नाम कुम्भ्कोनम पड़ा . कुम्भ्कोनम में आयोजित होने वाले कुम्भ को महामहम कहा जाता है . इसे दक्षिण भारत का कुम्भ भी कहा जाता है . अंतिम महामहम कुम्भ का आयोजन मार्च 2004 में हुआ था तथा अगले कुम्भ का आयोजन 2016 में होने वाला है .

महामहम कुम्भ का निर्धारण भी मुख्य चारो कुम्भो की तरह खगोलीय घटनाओ के आधार पर ही होता है . महामहम पर्व के दोरान लाखो हिन्दू कुम्भाकोनम में आते है . इस पर्व की शुरुआत पवित्र महामहम कुंड में इसनान से शुरू होती है . जिसके पश्चात् तीर्थयात्री पवित्र कावेरी के घटो पर जा कर उसमे दुबकी लगते है . इस पर्व के दौरान कुम्भाकोनम के प्राचीन मंदिरों से देवताओ की पालकियो को निकला जाता है . एंव पूरी की रथयात्रा की तर्ज पर एक विशाल रथयात्रा यहाँ भी निकली जाती है . धार्मिक ग्रंथो में कुम्भाकोनम को काशी से भी पवित्र बताया गया है . स्थानीय लोक मान्यताओ के अनुसार काशी सभी पापियों के पाप धोती है . और जो व्यक्ति काशी में पाप करता है उसके पाप केवल कुम्भाकोनम में धुलते है .

परन्तु ये भी एक विडंबना है की जहाँ एक और चार कुम्भो में पूरा देश उमड़ता है , वहीँ इस दक्षिण के कुम्भ के बारे में ज्यादा जानकारी भी लोगो को नहीं है . जबकि शास्त्रों के अनुसार इस कुम्भ का महत्त्व किसी भी तुलना में बाकि चारो कुम्भो से कम नहीं है . आज जरुरत 12 कुम्भो में से बचे हुए इस पांचवे कुम्भ को भी इसका पवित्र स्थान दिलाने की है . इस देश के संत समाज को इस बारे में जरुर सोचना चाहिए , खासकर अखाडा परिषद् और शंकराचार्यों को , ताकि कुम्भ परंपरा का पुनः प्रवाह उत्तर से दक्षिण की और हो सके . और इस देश की धरम प्रधान संस्कृति को पुनः इसका एतिहासिक गौरव प्रदान हो सके .

इस कुम्भ से न केवल धार्मिक एकता को बल मिलेगा अपितु इस देश की सांस्कृतिक एकता को भी बल मिलेगा . तथा उत्तर दक्षिण की खाई को भी पाटने में मदद मिलेगी. क्योंकि इस देश की एकता इस देश की धार्मिक संस्कृति में विदमान है न की किसी और में .



Vikas Singhal


सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

मोहनदास करमचंद गाँधी: वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार

अच्छा होता कि मोहनदास करमचंद गाँधी की विरासत का सम्यक मूल्यांकन करके उन के विचार व कर्म से दूध और पानी अलग कर के लाभ उठाया जाता। तब उन के महान कार्यों के साथ-साथ भयंकर गलतियों से भी सीख ले कर हम आगे बढ़ सकते थे। किंतु भारी अज्ञान, कांग्रेसी-वामपंथी दुष्प्रचार और राजनीतिक छल-छद्म जैसे कारणों से ऐसा न हो पाया। स्वतंत्र भारत में गाँधीजी की अंध-जयकार, चाहे वह भी खोखली ही क्यों न हो, से आगे शायद ही कुछ किया गया। जब उन के सकारात्मक कार्यों को ही किसी सत्ता या संगठन ने नीतिगत रूप देने की कोशिश नहीं की, तब उन की भूलों के प्रति कोई चेतना जगाने का काम क्या होता!

पर यह समझना आवश्यक है कि राजनीतिक समस्याओं पर ‘गाँधीगिरी’ जैसे विचार केवल हिन्दू आबादी के बीच सुरक्षित जीते हुए ही पनपते हैं। (क्या आपने कभी नोट किया है कि कश्मीर, पंजाब और बंगाल में गाँधी को चाहने वाले दीपक लेकर खोजने से भी शायद ही मिलें! क्यों?) गाँधी का जयकारा वहीं होता है जहाँ जयकारे करने वाला बुद्धिजीवी, नेता या प्रवचनकर्ता मजे से शांति, सुरक्षा के वातावरण में रह रहा हो। जिसे आस-पास की बेचारी भोली हिन्दू जनता द्वारा आदर-सम्मान पहले से प्राप्त हो – ऐसे समाज के बीच रहते हुए ही सेक्यूलर, सर्व-धर्म सम-भाव जैसे भ्रामक विचार पनपते हैं। हिन्दुओं के लिए भ्रामक! मुसलमान तो कभी इस भ्रम में पड़ नहीं सकते। उदार, सज्जन मुसलमान भी। क्योंकि उन का मजहब यह सब मानने की इजाजत ही नहीं देता। बल्कि इसे ‘कुफ्र’ कह कर उन मुस्लिमों को भी कठोरतम दंड देता है, जो इस की बात भी करते हैं। रुशदी से लेकर तसलीमा तक किसी का हश्र देख लीजिए। निरी उपेक्षा के रूप में अपने निवर्तमान राष्ट्रपति कलाम का भी हाल देखें। उन्हें कौन मुसलमान पूछता है!

इसीलिए भारत में सेक्यूलरिज्म की राजनीति अंततः हिन्दू-विरोध की राजनीति का ही दूसरा नाम बन गई। उस में इस्लामी कठमुल्लेपन, हिंसा, असंवैधानिक और अनैतिक माँगों तक का विरोध करने का साहस नहीं है। अतः सेक्यूलरिज्म ले-देकर केवल हिंदू भावना को लांछित करने तथा हिंदूवादियों को दंडित करने के काम आता है। अब इसे अनेक पत्रकार भी समझने लगे हैं, चाहे चाहे खुलकर स्वीकार करें या नहीं। सेक्यूलरिज्म की राजनीति अथवा गाँधीगिरी केवल हिन्दू जनता के बीच की जाती है। मुस्लिम जनता के बीच हरेक दल इस्लाम-परस्ती की ही प्रतियोगिता करता है, ताकि वोट मिलें। यही वोट-बैंक की राजनीति या सेक्यूलर राजनीति है। इस प्रतियोगिता में जो हारता है वह जानता है कि किस कारण हारे!

विगत लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और सीपीएम की हार का असली कारण उनसे मुस्लिमों का नजर फेर लेना ही था। वह नजर कांग्रेस को इनायत की गई, इस का संकेत स्वयं ‘राष्ट्रीय’ अल्पसंख्यक आयोग ने मुस्लिम बहुल चुनाव क्षेत्रों के नतीजों का आकलन करके किया है। यानी असली बात सब जानते हैं। इस गंभीर सत्य को नोट कर लेना चाहिए कि कटिबद्ध, एकमुश्त वोट करने की प्रवृत्ति के साथ आबादी में बढ़ते प्रतिशत से मुस्लिम वोट-बैंक अब निर्णायक हो गया है। इसीलिए जिन दलों को मुस्लिम वोट नहीं मिले, वे भी मौन हैं। निरुपाय हैं। क्योंकि आगे भी उसी की आस करनी हैं।

आगामी चुनावों में भी पुनः सभी दल मुस्लिमों की कृपा-दृष्टि के लिए ही प्रतिद्वंदिता करेंगे। उसके लिए बढ़-चढ़ कर मुस्लिमों के दुःख, कष्ट और भावनाओं की माँग उठाएंगे। रंगनाथ मिश्रा, जे. बी. मुखर्जी या राजेन्द्र सच्चर जैसे मुखौटे खड़े करेंगे ताकि देश-घाती कदम उठाने की आड़ मिले। इस विचित्र वोट-बैंक राजनीति का आरंभ कब, कैसे हुआ था? वह वोट-बैंक, जो न केवल गैर-मुस्लिम राजनीतिकों के लिए सदैव छलना रहा है, बल्कि उसका भारत के हितों से एकदम विपरीत रिश्ता है। वह वोट-बैंक किसी राष्ट्रीय लक्ष्य की चिंता ही नहीं करता, क्योंकि उस का एक विशिष्ट, अंतर्राष्ट्रीय और विस्तारवादी उद्देश्य है।

भारत में वोट-बैंक राजनीति की लालसा के पहले शिकार मोहनदास करमचंद गाँधी थे। तुर्की के खलीफा की सत्ता बचाने के लिए हुए ‘खिलाफत जिहाद’ (एनी बेसेंट के शब्द) में भारतीय मुस्लिमों ने जबर्दस्त भागीदारी की। यह सन् 1916-20 की बात है। गाँधी उस संगठित, विशाल संख्या से मोहित हो गए। सोचा कि यदि ये अपने साथ हो जाएं तो अंग्रेजों से लड़ने में कितना बल मिलेगा! यह लोभ ही था, यह संपूर्ण परिस्थिति से स्पष्ट है। प्रथम, गाँधी को तुर्क-ऑटोमन साम्राज्य के खलीफा से कोई लगाव था, यह मानने का कोई कारण नहीं। दूसरे, उसी समय अंग्रेजों ने भारत में मौंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लाया था। जिसका कांग्रेस ने भी स्वागत कर सरकार से सहयोग का निर्णय किया था। इसीलिए, 1921 में अंग्रेजों के विरुद्ध आकस्मिक, अप्रत्याशित रूप से कोई असहयोग आंदोलन छेड़ने का कोई कारण न था। गाँधी के दबाव में कांग्रस ने वह आंदोलन मात्र खलीफत को समर्थन देने के लिए आरंभ किया था।

पर तुर्की में खलीफा रहे या जाए, इस से भारतीय हितों का दूर से भी संबंध न था। अतः खिलाफत नेताओं को भी कांग्रेस समर्थन की अपेक्षा न थी। दोनों की दो दिशा थी। एक तुर्की के लिए विश्व-इस्लामी आंदोलन था। जबकि कांग्रेस विदेशी शासकों से कुछ सुधारों की माँग कर रही थी। इसीलिए जब गाँधी ने खिलाफत से कांग्रेस को जोड़ना चाहा तो मोतीलाल नेहरू को छोड़कर कोई उन के साथ न था। क. मा. मुंशी के अनुसार सभी मानते थे कि गाँधी एक गलत उद्देश्य के लिए अनैतिक काम कर रहे हैं “जिससे बड़े पैमाने पर हिंसा होगी और सुशिक्षित हिन्दू-मुस्लिमों की राजनीतिक भागीदारी घटेगी”। स्वयं जिन्ना ने भी गाँधी को चेतावनी दी कि मतांध मौलवियों को प्रोत्साहन न दें। फिर, हिंदू डरते थे कि खलीफत को मदद देने से संगठित मुस्लिम शक्ति बढ़ेगी, जिससे वे अफगानिस्तान को आक्रमण का न्योता दे भारत पर कब्जा कर सकते हैं। यह संदेह खुली चर्चा में था, जिस पर एनी बेसेंट, लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, श्रीअरविन्द आदि अनेक मनीषियों ने भी सार्वजनिक चिंता प्रकट की थी। अतः अनेक कारणों से खलीफत आंदोलन के समर्थन का विरोध था।

पर गाँधी के दबाव में कांग्रेस उस में लग गई। असहयोग आंदोलन वस्तुतः खलीफत के लिए हुआ था। वह किसी स्वतंत्रता या स्वशासन का आंदोलन न था। तब, खलीफत खत्म होने पर पहले तो यहाँ मुसलमानों ने कई स्थानों पर अपना क्रोध हिन्दुओं पर उतारा। एक बार ‘जिहाद और काफिरों को मारने’ का आवाहन कर देने पर अधीर जिहादियों के लिए ईसाई और हिन्दू, दोनों ही एक जैसे दुश्मन थे। मौलाना आजाद सुभानी जैसे कई मुस्लिम नेता अंग्रेजों से भी बड़ा दुश्मन ‘बाईस करोड़ हिन्दुओं’ को मानते थे। वे भारत में फिर मुस्लिम शासन के ख्वाहिशमंद थे, जिस में उन्हें हिन्दू बाधक लगते थे।

फिर वही हुआ जिसका डर था। मुसलमानों ने अफगानों को भारत पर हमला करने का निमंत्रण दे दिया। अंग्रेजों का विरोध करने के नाम पर गाँधी इसमें भी ‘सहायता’ देने को राजी हो गए (यंग इंडिया, 4 मई 1921)। जिस तुर्की खलीफा को स्वयं उसके अपने देशवासियों ने सत्ताच्युत किया, उसके रंज में केरल में मोपला मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्लेआम, जबरन धर्मांतरण, मंदिरों का ध्वंस और वीभत्स अत्याचार किए। यह जिहाद भावना से किया गया था। इसीलिए, गाँधीजी ने उसकी भर्त्सना के बजाए कहा कि “मुस्लिम भाइयों ने वह किया जो उन का धर्म उन्हें कहता है”, यानी इस्लामी नजरिए से गलत नहीं किया! इसीलिए, खिलाफत प्रकरण के बाद देश भर में गाँधीजी का मान बहुत घट गया था।

यह सब मात्र उस लालसा के कारण हुआ जिसने गाँधी जी को जी-जान से पकड़ लिया था। कि उन्हें मुस्लिम समर्थन हर कीमत पर लेना ही है। कि मुस्लिम उन्हें अपना नेता मान लें। यही तो वोट-बैंक राजनीति है! गाँधी के प्रियतम जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में लिखा है कि गाँधीजी, “वह सब मानने के लिए तैयार रहते थे जो मुसलमान माँगें। वह उन्हें जीतना चाहते थे।” किंतु गाँधी यह सरल सी बात भुला बैठे कि मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रखने, और विरुद्ध प्रयोग करने के लिए अंग्रेज पहले से ही उन्हें अधिकाधिक विशिष्ट अधिकार देते रहे थे। यह 1906 से ही चल रहा था। उस में गाँधी कैसे पार पाते? पर लोभ-लालसा की तो विशेषता ही यही है कि वह मति हर लेती है।

अतएव खलीफत जिहाद का समर्थन केवल मुस्लिम समुदाय को लुभाने की चाह में किया गया था। उस में बुरी तरह पिटने के बाद भी गाँधी वही करते रहे। उसी चाह में कि मुसलमान उन्हें अपना नेता मान लें। लंदन में गोल-मेज कांफ्रेंस (1931) में यह खुल कर आया जब गाँधी ने कांग्रेस को हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों की प्रतिनिधि बताने की कोशिश की। उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। तब गाँधी जी ने मुसलमानों को ‘ब्लैंक चेक’ देने की बात की, ताकि कांफ्रेंस में उपस्थित मुस्लिम प्रतिनिधि गाँधी का नेतृत्व मान लें। उस प्रस्ताव को भी मुस्लिम नेताओं ने हिकारत से ठुकरा दिया।

फिर इतिहास साक्षी है, गाँधी अपनी लालसा छोड़ न सके। हर मोड़ पर मुस्लिम नेताओं की सभी ऊल-जुलूल सिर-आँखों उठाते रहे। हत्यारे, गुंडे मुस्लिमों से भी प्रेम दर्शाते रहे। स्वामी श्रद्धानंद जैसे महान सपूत की हत्या करने वाले को अपना ‘भाई’ कहा, जैसे बाद में कलकत्ता में पाँच हजार हिन्दुओं का कत्लेआम कराने वाले सुहरावर्दी को भी। लाहौर के वीर, निष्ठावान सपूत महात्मा राजपाल को लांछित किया जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपमानित करने वाले एक मुस्लिम प्रकाशन का समुचित, संयमित, तथ्यपूर्ण उत्तर देते हुए इस्लाम को आइना दिखाया था। जिन राजपाल को पूरे लाहौर में सम्मान से देखा जाता था, उनके लिए गाँधी जी ने गंदे विशेषणों का प्रयोग करते हुए ‘प्रतिकार’ की माँग करते हुए मुसलमानों को स्पष्ट भड़काने तक का कार्य किया। अंततः एक जुनूनी जिहादी ने राजपाल की हत्या कर दी (1929)।

ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं जिस में गाँधी जी की दोहरी और सिद्धांतहीन नीति सबको एकदम साफ दिखती थी। यदि अपराधी मुस्लिम हो तो गाँधी सदैव उसी के पक्ष में खड़े दिखते थे, और एक से एक ऊल-जुलूल दलील देते थे। डॉ. अंबेदकर के अनुसार गाँधीजी ने हिन्दुओं के विरुद्ध मुस्लिमों द्वारा किए गए किसी अत्याचार, हिंसा और हत्याओं पर कभी एक शब्द न कहा।

यह कोई महात्मापन नहीं था। क्योंकि वही मोहनदास गाँधी कभी चंद्रशेखर आजाद, चंद्रसिंह गढ़वाली, भगत सिंह, मदनलाला ढींगरा और ऊधम सिंह जैसे महान सूपतों को भी भाई नहीं कहते थे। न उन के विश्वासों का आदर करते हुए कभी उदारता दिखाई। यहाँ तक कि गुरू गोविन्द सिंह और शिवाजी जैसे ऐतिहासिक महापुरुषों को भी गाँधी ने ‘दिगभ्रमित देशभक्त’ कहने तक की धृष्टता की। क्योंकि इन महापुरुषों ने अस्त्र-शस्त्र उठाकर समाज की सेवा की थी। इसलिए गाँधी उन्हें येन-केन-प्रकारेन खारिज करते थे। जबकि वही गाँधी मोपला के जिहादी हत्यारों और स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद जैसे जुनूनी, धोखेबाज कातिलों को भी अपना ‘भाई’ बताते थे। तब अहिंसा का सिद्धांत एकदम पीछे चला जाता था और इस्लामी कृत्य वीभत्स, हिंसक होकर भी आदरणीय हो जाता था। यह सिद्धांतहीनता वही लालसा थी जो आज सिमी, इंडियन मुजाहिदीन, हुर्रियत आदि के पक्ष में खड़े होने वाले हिन्दू सेक्यूलरपंथी नेताओं में है।

इस विचित्र लालसा को मुस्लिम भी समझते थे। इसलिए वे गाँधी पर कभी विश्वास नहीं करते थे। उन्हें लगता था कि यदि कोई हिन्दू नेता हिन्दुओं का हित और अपने ‘अहिंसा’ सिद्धांत को भी छोड़कर सदैव मुसलमानों का पक्ष लेता है तो जरूर कोई असहज बात है! अतः वह भरोसे के काबिल नहीं। यह संयोग नहीं कि जिन्ना समेत अनेक मुस्लिम नेताओं का गाँधी से अधिक सहज संबंध पंडित मालवीय या स्वामी श्रद्धानंद जैसे नेताओं से रहा, जो कृत्रिम और विचित्र बातें न कहकर स्वभाविक हिन्दू विचार रखते थे।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि गाँधी को मुस्लिम समर्थन कभी नहीं मिला। हिन्दू जनता को बारं-बार बलिवेदी पर चढ़ा देने के बाद भी नहीं मिला। पर उस चाह ने गाँधी का पीछा न छोड़ा। खिलाफत से लेकर देश विभाजन, और उसके बाद तक गाँधी उसी भावना से चलते रहे। उन्हें कभी अनुकूल परिणाम न मिला। क्योंकि डॉ. अंबेदकर के शब्दों में, “मुसलमानों की राजनीतिक माँगें हनुमानजी की पूँछ की तरह बढ़ती जाती हैं।” उन्हें पूरा करते जाने के चक्कर में गाँधी ने देश का विभाजन तक करा लिया। उस के बाद भी पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल के सिखों-हिन्दुओं को राम भरोसे छोड़ दिया। पूछने पर कहा कि ‘खुशी-खुशी जान दे दें और हमला करने वाले मुसलमानों का प्रतिकार न करें’।

निश्चय ही, वोट-बैंक राजनीति के पहले शिकार गाँधी थे। देश की हानि के सिवा इस राजनीति ने कभी कुछ नहीं दिया है। यह मानना कुछ लोगों को कठिन लगेगा, क्योंकि इतिहास का पूर्ण मिथ्याकरण कर दिया गया है। किंतु 1919 से 1947 तक की घटनाओं के सविस्तार अध्ययन से यही निष्कर्ष मिलेगा। उस दौरान अनेकानेक नेताओं, मनीषियों ने गाँधी को चेतावनी दी थी। पर वह उस मोह से उबर नहीं सके। जब गाँधी जैसे व्यक्ति उस से पिट गए तब लालू, मुलायम, चंद्र बाबू और वाजपेयी आदि को उस से क्या मिलना था!

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

राजनीतिक जजिया की तैयारी

प्रस्तावित ‘सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा निरोधक (न्याय और क्षतिपूर्ति मिलने) विधेयक, 2011’ खुले तौर पर बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक समुदायिक आधार पर बनाया गया है। सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर यह एक ऐसे कानून का प्रस्ताव है, जो किसी आगामी सांप्रदायिक हिंसा के लिए सदैव हिंदुओं को दोषी मानकर चलता है। किसी अज्ञात व्यक्ति की शिकायत पर भी कोई हिन्दू गिरफ्तार होगा, यदि शिकायत सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने की हो। ऐसी शिकायत किसी ‘अल्पसंख्यक’ पर लागू नहीं होगी। अतः आरंभ से ही किसी हिन्दू के दोषी होने की संभावना मानकर चली जाएगी। उसकी कोई टीका-टिप्पणी भी सांप्रदायिक हिंसा उकसाने जैसी बात मानी जाएगी। अर्थात् प्रस्तावित कानून स्थाई रूप से हिन्दुओं के मुँह पर सदा के लिए ताला लगा देगा।

यह कानून वर्तमान न्याय दर्शन के भी विपरीत होगा। यह दर्शन मानता है कि जब तक किसी का अपराध साबित न हो, उसे निर्दोष समझना चाहिए। प्रस्तावित कानून मानेगा कि हर हिन्दू सांप्रदायिक हिंसा का दोषी है, जब तक कि वह स्वयं को निर्दोष न साबित कर ले। किंतु यही मान्यता अल्पसंख्यकों पर लागू नहीं होगी। क्योंकि प्रस्तावित कानून केवल उन्हें ही सांप्रदायिक हिंसा का पीड़ित मानकर चलता है।

तदनुरूप देश भर में सांप्रदायिकता पर निगरानी करने वाली एक विशेष अथॉरिटी होगी। यह अथॉरिटी सांप्रदायिक हिंसा रोकने में विफलता आदि नाम पर राज्य सरकारों तक को बर्खास्त कर सकेगी। इस अथॉरिटी में ‘अल्पसंख्यकों’ अधिक संख्या में रखे जाएंगे। क्योंकि यह कानून स्थाई रूप से मानेगा कि हर हाल में, कहीं भी, कभी भी सांप्रदायिक हिंसा निरपवाद रूप से हिन्दू ही करेंगे। अतः किसी सांप्रदायिक घटना की जाँच, विचार, तथा निर्णय करने वाली इस सुपर अथॉरिटी में गैर-हिन्दू ही निर्णायक संख्या में होने चाहिए। इसमें यह मान्यता निहित है कि हिन्दू तो हिन्दू दंगाई के लिए पक्षपात करेगा, किन्तु गैर-हिन्दू पक्षपात नहीं कर सकता!

स्वतंत्र भारत में सामुदायिक भेद-भाव के आधार पर बनने वाला यह सबसे भयंकर कानून होगा। न्याय, सच्चाई और संविधान के साथ ऐसा मजाक करने वालों को क्या भारत में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास पता भी है?

भारतीय संसद में ही प्रस्तुत गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सन् 1968 से 1970 के बीच हुए चौबीस दंगों में तेईस दंगे मुस्लिमों द्वारा आरंभ किए गए थे। (इंडिया टुडे, 10 अप्रैल 2002)। यह रिपोर्ट कांग्रेस शासन में ही आई थी। तब से हालत बदतर ही हुए। हालिया सांप्रदायिक हिंसाओं की भी वही कहानी है। गोधरा से लेकर मऊ, और उदालगिरि से लेकर मराड तक सांप्रदायिक हिंसा किस समुदाय ने आरंभ की थी? यहाँ तक कि विदेशों में घटी घटनाओं, किन्ही अमेरिकी या यूरोपीय द्वारा दिए बयान या किए गए काम से क्रुद्ध होकर यहाँ भारत में सांप्रदायिक हिंसा आरंभ करने का काम कौन करता है? चाहे वह अमेरिका में पादरी जेरी फेलवेल का बयान (2002) हो या डेनमार्क में कोई कार्टून बनना (2005), हर बार यहाँ बेचारे हिन्दुओं को संगठित हिंसा का भयानक दंश झेलना पड़ता है।

यही स्वतंत्रता-पूर्व भी होता था, जब तुर्की में खलीफत खत्म होने पर यहाँ मोपला, मुलतान, ढाका तथा अनेक स्थानों पर हिन्दुओं को क्रूरता पूर्वक मारा गया। वह सब देखकर महात्मा गाँधी जैसे व्यक्ति को भी सन् 1924 में कहना पड़ा कि “मुसलमान प्रायः आक्रामक होता है और हिन्दू कायर”। कि यह पुरानी परंपरा है। सांप्रदायिक हिंसा पर यह सचाई समकालीन इतिहास है। जिसे गाँधी के साथ-साथ बंकिम चंद्र, श्रीअरविन्द, एनी बेसेंट, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाबासाहेब अंबेदकर जैसे अनेकानेक परम सत्यनिष्ठ महापुरुष नोट कर चुके हैं। अतः यदि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने की सचमुच चिंता है, तब पहले देश में हुए प्रत्येक दंगे और हिंसा की पूरी जानकारी देश के सामने रखी जाए। गिना जाए कि एक-एक दंगे की शुरुआत कैसे हुई, किसने की। तब स्वतः तय हो जाएगा कि ‘समुदाय’ के आधार पर हिंसा की चिंता कैसे करनी चाहिए।

सच यह है कि बहुसंख्यक होते हुए भी हिन्दुओं का ही पीड़ित होना होना एक पुरानी स्थिति है। गाँधीजी ने उसी को अपनी तरह कहा था। यह केवल मुगल काल की बात नहीं, जब हिन्दुओं पर औरंगजेब जैसे भयंकर अत्याचारी ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय के ही थे। ब्रिटिश शासन में भी, बीसवीं सदी में, यह कथित अल्पसंख्यक समुदाय ही बहुसंख्यकों का उत्पीड़क था। स्वतंत्रता पूर्व भारत में सांप्रदायिक दंगों का पूरा इतिहास इस की गवाही देता है। डॉ. अंबेदकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया’ (1940) में अनगिनत दंगों का उल्लेख किया है। इस गंभीर पुस्तक के अध्याय 7 से 12 तक पढ़कर स्वतः स्पष्ट हो रहेगा कि भारत में समुदाय के आधार पर कौन उत्पीड़क रहा है, और कौन उत्पीड़ित।

यह केवल स्वतंत्र आकलन की ही चीज नहीं। असंख्य मुस्लिम नेताओं ने स्वयं बारं-बार अहंकार पूर्वक हिन्दुओं को धमकी दी थी और आज भी देते हैं। सन् 1926 में मौलाना अकबर शाह खान ने महामना मदन मोहन मालवीय को सार्वजनिक चुनौती दी थी कि ‘पानीपत का चौथा युद्ध’ आयोजित किया जाए। उसमें भारत की तात्कालिक जनसंख्या के अनुपातिक हिसाब से 700 मुस्लिम रहें और 2200 हिन्दू। मौलाना ने घमंड से यहाँ तक कहा कि वे लड़ाई के लिए साधारण मुसलमान ही लाएंगे, पठान या अफगान नहीं, जिनसे हिन्दू ‘प्रायः आतंकित रहते हैं।’ मौलाना के अनुसार सात सौ साधारण मुस्लिम बाइस सौ हिन्दुओं को यूँ ही कुचल देंगे। यह कोई आपवादिक प्रसंग नहीं था। स्वतंत्रता-पूर्व यहाँ दंगे निपट एकतरफा होते थे, जिनका मतलब ही था हिन्दुओं का संहार। यहाँ तक कि जिन्ना ने इस तथ्य का उपयोग भारत-विभाजन मनवाने के लिए भी किया था। कि यदि पाकिस्तान की माँग न मानी गई तो मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ (कलकत्ता, 1946) जैसा हिन्दुओं का सामूहिक संहार और किया जाएगा।

जिन्ना के अपने शब्दों में, “अब हिन्दुओं का भी हित इसी में है कि वे पाकिस्तान की माँग स्वीकार कर लें, चाहे तो केवल हिन्दुओं को कत्लेआम और विनाश से बचाने के लिए ही।” (लियोनार्द मोसले, द लास्ट डेज ऑफ द ब्रिटिश राज, पृ. 48)। क्या ऐसे अहंकारी बयान स्वयं नहीं बताते कि समुदाय के आधार पर हिंसा कौन करता और कौन झेलता है? जवाहरलाल नेहरू जैसे मुस्लिम-प्रेमी ने भी मुस्लिम लीग की पहचान यही बताई थी कि वह सड़को पर हिन्दू-विरोधी हिंसा करने के सिवा और कुछ नहीं करती। मौलाना अकबर से लेकर जिन्ना और सुहरावर्दी तक, यह सब कहने, करने वाले तब भी अल्पसंख्यक समुदाय के ही थे। ऐसे अगिनत प्रमाणों से यह भारत में ‘सांप्रदायिक दंगों’ के इतिहास की सचाई जरूरी तौर पर समझ ली जानी चाहिए।

विभाजन के बाद के भारत में भी स्थिति मूलतः नहीं बदली। कश्मीर से पूर्णतः और असम, केरल में अंशतः केवल हिन्दू ही मार भगाए गए। क्या स्वतंत्र भारत में एक भी उदाहरण है, जहाँ मुस्लिम या ईसाई किसी राज्य या जिले से समुदाय के रूप में निकाले, मारे गए? अभी भारत में असंख्य ऐसे इलाके हैं जहाँ पुलिस भी जाने से डरती है। इन में कोई हिन्दू बस्ती नहीं। कई मीडिया कार्यालयों को जहाँ-तहाँ हिंसा और आगजनी झेलनी पड़ी है, फिर भी उलटे उन्होंने ही माफी माँगी। यह प्रसंग भी सदैव एक अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़ा है।

इसलिए आज तक जितनी सांप्रदायिक हिंसा हुई, सब के आँकड़े, जाँच-रिपोर्ट और अदालती कार्रवाइयों का पूरा हिसाब सामने रखें। यह सभी दंगे कैसे, किस घटना से भड़के। तब देखा जाए कि कौन समुदाय, किस बात का और कितना दोषी है। यदि समुदाय के आधार पर ही कानून बनना हो, तो पहले एक श्वेत-पत्र लाकर पिछले सौ वर्ष या चौंसठ वर्षों में हुई सभी हिंसा का ठोस विवरण दिया जाए। तभी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक समुदायों के आधार पर सांप्रदायिक-हिंसा निरोधक कानून बनाने की कैफियत हो सकती है। अन्यथा यह विशुद्ध मनमानी ही होगी।

जिस अल्पसंख्यक समुदाय में देश का विभाजन करा देने, और हिंसा के बल पर इलाके दर इलाके खाली कराने की सामर्थ्य हो, वह कतई पीड़ित, विवश या भयाकुल नहीं माना जा सकता। आज भी भारत में ईमाम बुखारी, सैयद शहाबुद्दीन, अबू आजमी, हाजी याकूब, अहमद कादरी, अफसर खान और मोअज्जम खान जैसे अनेकानेक मुस्लिम नेताओं और दीनदार अंजुमन, स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), इंडियन मुजाहिदीन आदि विभिन्न प्रकार के मुस्लिम संगठनों की भाषा कड़वी सचाई की चुगली करती है। अहमद कादरी और मोअज्जम खान आंध्र विधान सभा के सदस्य होते हुए किसी को खुले आम मार डालने की कोशिश करते हैं और ‘आइंदा न चूकने’ के बयान देते हैं। और कानून-व्यवस्था तंत्र उन्हें टोकने तक का साहस नहीं रखता! हत्या के प्रयास में उन्हें गिरफ्तार और सजा देने की तो बात ही दूर रही। देश की राजधानी में ईमाम बुखारी केंद्रीय मंत्रियों से लेकर उच्च न्यायालय, यहाँ तक कि पूरे देश को भी धमकियाँ देते रहे हैं। अबू आजमी संसद में खड़े होकर पुनः देश के विभाजन जैसी धमकी दे चुके हैं। अनेक मौलाना और ईमाम भारत को निशाना बनाने वाले विदेशी इस्लामी आतंकवादियों तक की खुली जयकार करते रहे हैं। हमारे ‘अल्पसंख्यक’ नेताओं की भाषा से ही पता चल जाता है कि कौन कितने पानी में है।

यह कोई स्थिर स्थिति भी नहीं। दिनो-दिन इस्लामी दबाव भारतीय सामाजिक-राजनीतिक-कानूनी-शैक्षिक आदि क्षेत्रों में बढ़ रहा है। प्रस्तावित कानून इसी का संकेत है। हमारे अधिकांश नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का पूरा हाल जानते हैं। पर बोलते कुछ और हैं! एक विचित्र दुरभिसंधि जो मानो पूरे देश को शुतुरमुर्ग बनाने पर तुली है।

फिर भी, कभी-कभी इस्लामी दबाव से अकुलाहट के कारण सच मुँह से निकल जाता है। जुलाई 2003 में केरल के तात्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता ए. के. एंटोनी, जो स्वयं ईसाई समुदाय से हैं, ने इसे स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया था। उन के अनुसार, “केरल में अल्पसंख्यक शक्तिशाली रूप से संगठित हैं। उन्होंने दबाव से बहुत अधिक सुविधाएं और लाभ उठा लिए हैं। राज्य के राजनीतिक, प्रशासनिक स्तर में उनका दबदबा है। यह उचित नहीं है। मुसलमानों को इससे होने वाले हिन्दू असंतोष पर ध्यान देना चाहिए और संयम बरतना चाहिए।” (इंडिया टुडे, 28 जुलाई 2003)।

श्री एंटोनी ने केरल की बात की थी, किंतु पूरे देश में यह ‘अनुचित’ मुस्लिम दबाव महसूस किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुलदीप सिंह ने भी एक बार कहा था, “भारत में सेक्यूलरिज्म को सांप्रदायिकता सहन करने में, उस का बचाव करने में बदल कर रख दिया गया है। अल्पसंख्यकों को समझना होगा कि वे उस संस्कृति, विरासत और इतिहास से नाता नहीं तोड़ सकते, जो हिन्दू जीवन शैली से मिलता-जुलता है।… अल्पसंख्यकवाद को राष्ट्र-विरोध का रूप लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती।” इस कथन से स्पष्ट दीखता है कि अल्पसंख्यकवाद राष्ट्र-विरोध का रूप लेता रहा है!

उदाहरणार्थ, मार्च 2006 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा के दौरान यहाँ विभिन्न शहरों में जोरदार प्रदर्शन हुए कि भारत की विदेश नीति अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी चाहत के अनुरूप ढाली जाए। माँग इतनी जोरदार थी कि राष्ट्रीय जिम्मेदारियाँ उठाए हमारे कई नेता बुश की पूरी भारत यात्रा के दौरान गायब हो रहे। ऐसे सत्ताधारी नेता भी जिन पर ठीक देश के वैदेशिक संबंधों को सँभलाने की जिम्मेदारी थी! मगर जॉर्ज बुश के साथ उनकी फोटो न आ जाए, इस डर से वे अपनी ड्यूटी छोड़कर अंतर्ध्यान हो गए। यह किस समुदाय से डर था?

ऐसी लज्जाजनक स्थिति भारत में ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय के पीड़ित होने या भेदभाव झेलने का संकेत नहीं देती। यह तो एक ऐसी दबंगई का प्रमाण है जिससे सभी डरते हैं। नेता, पत्रकार, व्यापारी, उद्योगपति सभी। चाहे वे लज्जावश इसे स्वीकार न करें, किंतु विदेशी भी यहाँ की सच्चाई समझते हैं। सऊदी अरब के विदेश मंत्री सऊद अल-फैजल ने एक बार स्पष्ट कहा भी कि भारतीय मुसलमान कोई अल्पसंख्यक नहीं हैं, जिन्हें किसी बाहरी मदद की जरूरत हो, और वे स्वयं सशक्त और समर्थ हैं।

सन् 2006 में यहाँ सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया कि देश में शरीयत कोर्ट जैसा समानांतर इस्लामी कानून-तंत्र अवैध रूप से फैलाया जा रहा है। इमराना, जरीना, गुड़िया आदि युवतियों पर उलेमा के बेधड़क अत्याचार के संदर्भ में यह बात उठी थी। कोर्ट ने कहा कि व्यवस्थित प्रयास हो रहा है कि शरीयत कोर्टों को पहले चुप-चाप इतना विस्तृत रूप दे दिया जाए कि गंभीर प्रश्न उठने पर कोर्ट और सरकार के पास इस स्थिति को अब ‘हो चुकी घटना’ (fait accompli) मानने के सिवा कोई चारा न रहे। जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर पूछा तो हमारे शासक कुछ स्पष्ट कह नहीं पाए। (सेंट्रल क्रॉनिकल, 28 मार्च 2006)। आए दिन ऐसे समाचार आते हैं जिस में मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि संविधान या न्यायालयों की खुली उपेक्षा करते हैं – चाहे वह वैयक्तिक विषय हों या सामाजिक, कानून-व्यवस्था का प्रश्न हो या जब-तब धमकाऊ बयानबाजियाँ।

कहीं नहीं प्रतीत होता, कि सैयद शहाबुद्दीन से लेकर ईमाम बुखारी, हाजी याकूब या यह या वह अब्दुल्ला जैसे विभिन्न कद और मिजाज के अल्पसंख्यक न्यायपालिका की भी परवाह करते हों। क्या यह ‘अल्पसंख्यक’ की वही छवि है जो प्रस्तावित सांप्रदायिक कानून में गढ़ी गई है? वास्तविक छवि उलटी है। भारत में मुस्लिम समुदाय की संगठित शक्ति से राजनीतिक दल, न्यायपालिका, मीडिया सभी आशंकित रहते हैं। उचित कार्य से भी कतराते हैं यदि मुस्लिमों के भड़कने का खतरा हो। जबकि हिन्दू धर्म से लेकर हिन्दू संगठनों, नेताओं को भी जब चाहे दो लात लगाने से किसी को रंच मात्र संकोच नहीं होता। अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के सबंध में यह कड़वा सत्य सभी जानते हैं। उसी तरह व्यवहार भी करते हैं।

किसी बाहरी व्यक्ति को यह अटपटा लग सकता है कि किसी लोकतंत्र में ऐसी विचित्र स्थिति हो। किंतु बात अटपटी है नहीं। हिन्दुओं की धर्म-चेतना व्यक्तिगत और अंतर्मुखी है। उन्होंने कभी अपने को मत-विश्वास पर संगठित नहीं किया, न किसी को मतांतरित करने का कोई उद्देश्य ही रखा। न साम्राज्यवादी विस्तार की सोची। अतः विभिन्न कारणों से हिन्दू अपने-आपको एक समुदाय के रूप में देखते ही नहीं। अधिक से अधिक उनमें कई लोग अपनी जाति भर से जुड़ाव महसूस करते हैं।

इसलिए व्यवहारतः प्रत्येक हिन्दू स्वयं को एक प्रकार अल्पसंख्यक ही समझता है। पूछ कर देखें तो हरेक हिन्दू को कोई न कोई शिकायत ही है। कोई जातिगत दुर्व्यवहार से पीड़ित महसूस करता है, तो कोई आरक्षण से, कोई सत्ता में पर्याप्त भागीदारी न मिलने से, तो कोई विचारधारा के नशे में हिन्दू-धर्म को ही रोज जली-कटी सुनाता है। ऐसी विविध भावनाओं से ग्रस्त हिन्दू नितांत विखंडित हैं। वे बहुसंख्यक के रूप में न महसूस, न व्यवहार करते हैं। इसीलिए सभी राजनीतिक दल ‘अल्पसंख्यक’-मोह से ग्रस्त हैं, क्योंकि उन्हें बहुसंख्यक की दयनीय स्थिति मालूम है।

दूसरी ओर, कथित अल्पसंख्यकों के मजहबी विचार सचेत संगठन, राजनीतिक विस्तार, और इस के लिए छल-प्रपंच तक में विश्वास रखते हैं। यूरोप में चलते ईसाई-मुस्लिम संवाद में उन के प्रतिनिधि कहते भी हैं, कि वे कोई ‘शाकाहारी’ रिलीजन नहीं। कि लड़ने-भिड़ने और सत्ता के लिए टकराने की उन की परंपरा है। यह भाव भारत के अल्पसंख्यक नेताओं में भी है। उन की रणनीतियाँ परिस्थितिवश भले भिन्न हों, किंतु संगठित आक्रामक मुद्रा में रहना उनका स्वभाव है। इसीलिए पोप दिल्ली में खड़े होकर (नवंबर 1999) पूरे भारत को ईसाइयत में धर्मांतरित करने, ‘आत्माओं की फसल’ काटने का खुला आह्वान करते हैं। तो कोई मुस्लिम संसद में खड़े होकर पुनः देश-विभाजन की धमकी देते हैं। और कोई हिन्दू प्रतिक्रिया नहीं होती। क्योंकि हिन्दू कह कर कोई संगठित समूह है ही नहीं!

यह महत्वपूर्ण तथ्य स्वयं हमारी सुप्रीम कोर्ट ने भी नोट किया है। ‘बाल पाटिल तथा अन्य बनाम भारत सरकार’ (2005) मामले में निर्णय देते हुए न्यायाधीशों ने स्पष्ट लिखा, “ ‘हिन्दू’ शब्द से भारत में रहने वाले विभिन्न प्रकार के समुदायों का बोध होता है। यदि आप हिन्दू कहलाने वाला कोई व्यक्ति ढूँढना चाहें तो वह नहीं मिलेगा। वह केवल किसी जाति के आधार पर ही पहचाना जा सकता है। …जातियों पर आधारित होने के कारण हिन्दू समाज स्वयं अनेक अल्पसंख्यक समूहों में विभक्त है। प्रत्येक जाति दूसरे से अलग होने का दावा करती है। जाति-विभक्त भारतीय समाज में लोगों का कोई हिस्सा या समूह बहुसंख्यक होने का दावा नहीं कर सकता। हिन्दुओं में सभी अल्पसंख्यक हैं।”

उक्त निर्णय में 1947 में देश के विभाजन का उल्लेख करते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि अंग्रेजों द्वारा धार्मिक आधार पर किसी को अल्पसंख्यक मानने और अलग निर्वाचक मंडल बनाने आदि कदमों से ही अंततः देश के टुकड़े हुए। इसीलिए न्यायाधीशों ने निर्णय में चेतावनी भी दी, “यदि मात्र भिन्न धार्मिक विश्वास या कम संख्या या कम मजबूती, धन, शिक्षा, शक्ति या सामाजिक अधिकारों के आधार पर भारतीय समाज के किसी समूह के ‘अल्पसंख्यक’ होने का दावा स्वीकार किया जाता है, तो भारत जैसे बहु-धार्मिक, बहु-भाषाई समाज में इसका कोई अंत नहीं रहेगा।” न्यायाधीशों ने ‘धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक होने की भावना को प्रोत्साहित करने’ के प्रति विशेष चिंता जताई, जो देश में विभाजनकारी प्रवृत्ति बढ़ा सकती है।

क्या सोनिया जी की निजी ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्’ अपने घातक प्रस्तावों से यही काम नहीं कर रही है? अधिकांश राजनीतिक दल भी वही करते हैं। अभी-अभी हुई राष्ट्रीय एकता परिषद् मीटिंग में कइयों ने विधेयक का विरोध किया, किंतु केंद्र-राज्य संबंध विकृत होने के आधार पर। इस के हिन्दू-विरोधी होने की बात शायद ही किसी ने की। क्योंकि भारतीय राजनीति में ‘अल्पसंख्यक’-वाद एक कैंसर सा रोग बन चुका है। देश के संसाधनों पर ‘मुस्लिमों का पहला अधिकार’ जैसी विभेदकारी प्रस्थापनाओं के बाद अब मजहब-आधारित आरक्षण देने की तैयारी चल ही रही है। रामविलास पासवान जैसी हस्ती ने केंद्रीय मंत्री पद से टेलीवीजन पर कहा था, “मैंने अफसरों को कह दिया है कि यदि कोई आवेदन किसी अल्पसंख्यक का है तो उसे तुरत स्वीकृत कर दो। नियम आदि मैं देख लूँगा।”

इसलिए बात यह है कि मुस्लिम समुदाय की विशेष सेवा करने की प्रतियोगिता में विभिन्न नेता और राजनीतिक दल न्याय और नैतिकता ही नहीं, संविधान एवं कानून को भी ताक पर रखने लगे हैं। क्योंकि मुस्लिम समुदाय ही सशक्त समुदाय है। मुस्लिम नेता भी यह बखूबी जानते हैं। प्रस्तावित विधेयक उन की आक्रामक शक्ति कई गुने बढ़ाने वाला है। फिर परिणाम क्या होगा, इस के लिए सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय पढ़ लें।

वस्तुतः, सदियों से भारत में हिन्दू ही दबे-कुचले विवशता में जी रहे हैं। आज भी उन क्षेत्रों में तो उन्हें हिंसा, अपमान झेलना ही पड़ता है जहाँ उनकी संख्या कम है। परन्तु पूरे देश में उन के हितों की खुली अनदेखी होती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार भारत में ‘अल्पसंख्यक’ की अवधारणा प्रांतीय आधार पर की जाती है। किंतु जम्मू-कश्मीर या नागालैंड में हिन्दुओं को उजाड़ ही दिया गया, किसी सुविधा की तो बात ही क्या! उसकी तुलना दूसरे अल्पसंख्यकों को मिलने वाली विशेष सुविधाओं से करें। यहाँ किसी भी प्रांत, यानी पूरे देश में, ‘अल्पसंख्यक’ रूपी मुस्लिमों और ईसाइयों को कई ऐसी सुविधाएं और विशेषाधिकार प्राप्त हैं जो हिन्दुओं, कथित बहुसंख्यकों को नहीं हैं। यह स्थिति पूरे विश्व में कहीं नहीं है!

इसलिए कानून तो वह बनना चाहिए तो इस राजनीतिक, कानूनी असंतुलन को दूर करे। बहुसंख्यकों को भी वह अधिकार मिले, जो अल्पसंख्यकों को हैं। जैसे शिक्षा में अपने धर्म-ग्रंथों को शामिल करने, मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने, आदि।

मगर सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर बनने वाला यह प्रस्तावित कानून हिन्दुओं को एक सीढ़ी और नीचे गिराएगा। यह मूर्खतावश हो रहा है या षड्यंत्र-पूर्वक, पता नहीं। किन्तु ऐसा विभेदकारी कानून बनने का परिणाम निस्संदेह अनिष्टकर होगा।

शंकर शरण

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

भारत के सरदार

इतिहासकार अक्टूबर की 31 तारीख को सरदार पटेल के जन्मदिवस के रूप में याद रखते हैं। बाद में इसमें इंदिरा गांधी की हत्या का अवसाद भी जुड़ गया। आगामी 31 अक्टूबर को सरदार पटेल की 135वीं जयंती है और वर्ष 2010 उनकी 60 पुण्यतिथि का वर्ष भी है। आज ऐसे लोग ज्यादा नहीं होंगे, जिन्होंने सरदार पटेल को देखा था।

अगर होंगे भी, जैसे डॉ कर्ण सिंह, तो उनकी उम्र 80 या 90 के ऊपर होगी। हम इफरात से जन्मशतियां मनाते हैं, लेकिन 1975 में सरदार पटेल की जन्मशती तकरीबन चुपचाप गुजर गई। वजह आपातकाल। लेकिन बौद्धिक जड़ता भी एक वजह रही, जो मनुष्य की याददाश्त पर परदा डाल देती है। जड़ता ही नहीं, भाई-भतीजावाद भी।

अक्टूबर माह और वर्ष २क्१क् एक अवसर है कि हम सरदार पटेल का सही आकलन करें, जिनके बारे में राजेंद्र प्रसाद ने कहा था : ‘आज हम जिस भारत के बारे में सोचते और बात करते हैं, उसके निर्माण में सरदार पटेल के राजनीतिक कौशल और प्रशासनिक दृढ़ता का अहम योगदान है।’ पटेल का राजनीतिक जीवन चार दशक लंबा था, लेकिन उनकी ‘प्रशासनिक दृढ़ता’ की अवधि चार वर्ष से अधिक नहीं है।

इसके बावजूद उन चार सालों में भारत निर्माण के लिए जो काम किया गया, वह बाद के सालों में इतनी अवधि में फिर कभी नहीं किया जा सका। सरदार पटेल के जीवन के अंतिम वर्ष १९५क् पर एक नजर डालते हैं। उनके पास दो मंत्रालय थे : गृह और सूचना प्रसारण। साथ ही वे रियासतों के विलय का काम भी देख रहे थे। पटेल के पास जो मंत्रालय थे, वे आज चिदंबरम और अंबिका सोनी के पास हैं, लेकिन फर्क यह है कि पटेल देश के उप प्रधानमंत्री भी थे। फर्क यह भी है कि वे सरदार वल्लभभाई पटेल थे।

जवाहरलाल नेहरू से राजनीतिक मतभेदों में पटेल हावी रहते थे। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पटेल के उम्मीदवार पुरुषोत्तमदास टंडन ने नेहरू समर्थित उम्मीदवार आचार्य कृपलानी को हराया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कांग्रेस की भावना के अनुरूप राजेंद्र प्रसाद का समर्थन किया और वे ही राष्ट्रपति बने, जबकि नेहरू इस पद पर राजगोपालाचारी को चाहते थे।

राजनीतिक तौर पर देश का एकीकरण करने वाले सरदार पटेल को राष्ट्रीय नायक का दर्जा प्राप्त है। प्रशासनिक तौर पर उन्हें उनकी निर्णय लेने की क्षमता और मितभाषिता के लिए याद रखा जाता है। निजी तौर पर उनकी एकाग्रता और दृढ़ता के लिए उनका सम्मान किया जाता है। उन्हें देखकर हमेशा मन में एक विश्वास पैदा होता था।

यह विश्वास कि देश उनके हाथों में सुरक्षित है। विभिन्न उच्च न्यायालयों के आदेश के तहत देशभर में लगभग दो हजार कम्युनिस्टों की रिहाई के बाद उन्होंने संसद में जो कहा, हम कल्पना कर सकते हैं कि नक्सल समस्या के संबंध में हमारे वर्तमान गृह मंत्री भी वही कहते : ‘हमारी लड़ाई कम्युनिस्टों से नहीं, उन लोगों से है जो विधि द्वारा स्थापित शासन को हिंसा के जरिए उखाड़ फेंकना चाहते हैं.. बहुजन की नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कुछ लोगों की आपराधिक स्वतंत्रता में कतरब्योंत जरूरी है।’

सरदार पटेल की भौगोलिक समझ का कोई सानी नहीं था। १९५क् के उत्तरार्ध में जब तिब्बत में चीन की कारगुजारियां उजागर हुईं, तो उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखा : ‘भारत के रक्षा तंत्र को दो मोर्चो पर एक साथ ध्यान केंद्रित करना होगा। पाकिस्तान के अलावा हमें उत्तर और उत्तरपूर्व में कम्युनिस्ट चीन पर भी नजर रखनी होगी।’ यह आज भी प्रासंगिक है।

तिब्बत मसले पर सरदार पटेल का ऐतिहासिक पत्र

नई दिल्ली
७ नवंबर, १९५०

मेरे प्रिय जवाहरलाल,
चीन सरकार ने हमें अपने शांतिपूर्ण उद्देश्यों के आंडबर में उलझाने का प्रयास किया है। मेरा यह मानना है कि वह हमारे राजदूत के मन में यह झूठ विश्वास कायम करने में सफल रहे कि चीन तिब्बत की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाना चाहता है। चीन की अंतिम चाल, मेरे विचार से कपट और विश्र्वासघात जैसा ही है। दुखद बात यह है कि तिब्बतियों ने हम पर विश्र्वास किया है, हम ही उनका मार्गदर्शन भी करते रहे हैं और अब हम ही उन्हें चीनी कूटनीति या चीनी दुर्भाव के जाल से बचाने में असमर्थ हैं। ताजा प्राप्त सूचनाओं से ऐसा लग रहा है कि हम दलाई लामा को भी नहीं निकाल पाएंगे । यह असंभव ही है कि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति तिब्बत में एंग्लो-अमेरिकन दुरभिसंधि से चीन के समक्ष उत्पन्न तथाकथित खतरे के बारे में विश्र्वास करेगा।


पिछले कई महीनों से रूसी गुट से परे हम ही केवल अकेले थे जिन्होंने चीन को संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता दिलवाने की कोशिश की तथा फारमोसा के प्रश्न पर अमेरिका से कुछ न करने का आश्र्वासन भी लिया।


मुझे इसमें संदेह हैं कि चीन को अपनी सदिच्छाओं, मैत्रीपूर्ण उद्देश्यों और निष्कपट भावनाओं के बारे में बताने के लिए हम जितना कुछ कर चुके हैं, उसमें आगे भी कुछ किया जा सकता है। हमें भेजा गया उनका अंतिम टेलिग्राम घोर अशिष्टता का नमूना है। इसमें न केवल तिब्बत में चीनी सेनाओं के घुसने के प्रति हमारे विरोध को खारिज किया गया है बल्कि परोक्ष रूप से यह गंभीर संकेत भी किया गया है कि हम विदेशी प्रभाव में आकर यह रवैया अपना रहे हैं। उनके टेलिग्राम की भाषा साफ बताती है कि यह किसी दोस्त की नहीं बल्कि भावी शत्रु की भाषा हैं। इस सबके पटाक्षेप में हमें इस नई स्थिति को देखना और संभालना होगा जिसमें तिब्बत के गायब हो जाने के बाद जिसका हमें पता था चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। इतिहास में कभी भी हमें अपनी उत्तर-पूर्वी सीमा की चिंता नहीं हुई है। हिमालय श्रृंखला उत्तर से आने वाले किसी भी खतरे के प्रति एक अभेद्य अवरोध की भूमिका निभाती रही है। तिब्बत हमारे एक मित्र के रूप में था इसलिए हमें कभी समस्या नहीं हुई। हमने तिब्बत के साथ एक स्वतंत्र संधि कर उसकी स्वायत्तता का सम्मान किया है। उत्तर-पूर्वी सीमा के अस्पष्ट सीमा वाले राज्य और हमारे देश में चीन के प्रति लगाव रखने वाले लोग कभी भी समस्या का कारण बन सकते हैं।


चीन की कुदृष्टि हमारी तरफ वाले हिमालयी इलाकों तक सीमित नहीं है, वह असम के कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए है। बर्मा पर भी उसकी नजर है। बर्मा के साथ और भी समस्या है क्योकि उसकी सीमा को निर्धारित करने वाली कोई रेखा नहीं है जिसके आधार पर वह कोई समझौता कर सके। हमारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में नेपाल, भूटान, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम के आदिवासी क्षेत्र आते हैं। संचार की दृष्टि से उधर हमारे साधन बड़े ही कमजोर व अपर्याप्त है; सो यह क्षेत्र 'कमजोर' है। उधर कोई स्थायी मोर्चे भी नहीं हैं

इसलिए घुसपैठ के अनेकों रास्ते हैं। मेरे विचार से अब ऐसी स्थिति आ गई है कि हमारे पास आतुमसंतुष्ट रहने या आगे-पीछे सोचने का समय नहीं है। हमारे मन में यह स्पष्ट धारणा होनी चाहिए कि हमें क्या प्राप्त करना है और किन साधनों से प्राप्त करना है।


इन खतरों के अलावा हमे गंभीर आंतरिक संकटों का भी सामना करना पड़ सकता है। मैने (एच०वी०आर०) आयंगर को पहले ही कह दिया है कि वह इन मामलों की गुप्तचर रिपोर्टों की एक प्रति विदेश मंत्रालय भेज दें। निश्चित रूप से सभी समस्याओं को बता पाना मेरे लिए थकाऊ और लगभग असंभव होगा। लेकिन नीचे मैं कुछ समस्याओं का उल्लेख कर रहा हू जिनका मेरे विचार में तत्काल समाधान करना होगा और जिन्हें दृष्टिगत रखते हुए ही हमें अपनी प्रशासनिक या सैन्य नीतियां बनानी होंगी तथा उन्हें लागू करने का उपाय करना होगा :

१ सीमा व आंतरिक सुरक्षा दोनों मोर्चों पर भारत के समक्ष उत्पन्न चीनी खतरे का सैन्य व गुप्तचर मूल्यांकन।
२ हमारी सैन्य स्थिति का एक परीक्षण।
३ रक्षा क्षेत्र की दीर्घकालिक आवशयकताओं पर विचार.
४ हमारे सैन्य बलों के ताकत का एक मूल्यांकन.
५ संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश का प्रश्न.
६ उत्तरी व उत्तरी-पूर्वी सीमा को मजबूत करने के लिए हमें कौन से राजनीतिक व प्रशसनिक कदम उठाने होंगे?
७ चीन की सीमा के करीब स्थित राज्यों जैसे यू०पी०, बिहार, बंगाल, व असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में आंतरिक सुरक्षा के उपाय.
८ इन क्षेत्रों और सीमावर्ती चौकियों पर संचार, सड़क, रेल, वायु और बेहतर सुविधाओं में सुधार.
९ ल्हासा में हमारे दूतावास और गयांगत्से व यातुंग में हमारी व्यापार चौकियों तथा उन सुरक्षा बलों का भविष्य जो हमने तिब्बत में व्यापार मार्गो की सुरक्षा के लिए तैनात कर रखी हैं.
१० मैकमोहन रेखा के संदर्भ में हमारी नीति.


आपका

वल्लभभाई पटेल

आज़ाद भारत???

मित्रों मुझे तो अभी शंका ही है कि भारत आज़ाद है| क्यों कि भारत आज़ाद होता तो यहाँ किसी विदेशी के आने पर उससे पासपोर्ट और वीजा माँगा जाना चाहिए, किन्तु १९९७ में ब्रिटेन की महारानी एलिजाबैथ के भारत आने पर पासपोर्ट नहीं लगा था वह बिना पासपोर्ट के भारत आई थी| १९४७ से पहले जब कोई ब्रीटिश अधिकारी या महारानी का भारत आना होता था तब उनसे पासपोर्ट पूछने वाला कोई नहीं था क्यों कि उस समय भारत इंग्लैण्ड का एक उपनिवेश था| किन्तु आज तो हम शायद भारत को आज़ाद कहते हैं न?
मित्रों आपको पता होगा कि आज के समय में जब चुनाव के बाद कोई दूसरी पार्टी सत्ता में आती है तो शपथ ग्रहण समारोह के बाद नया प्रधान मंत्री एक कागज़ पर हस्ताक्षर करता है जिसे सत्ता का हस्तांतरण कहते हैं, और उस पर हस्ताक्षर करने के बाद पुरानी पार्टी को देश निकाला नहीं दिया जाता, उसे भी भारत में सामान अधिकार के साथ जीने का हक़ दिया जाता है क्यों कि उस पार्टी के नेता भी भारत के संविधान में भारत के नागरिक हैं, अत: जो अधिकार एक साधारण भारतीय के हैं वे पुरानी पार्टी के नेता के भी हैं क्यों कि हम आज़ाद हैं| मित्रों १९४७ में भी नेहरु ने उसी कागज़ (सत्ता का हस्तांतरण) पर हस्ताक्षर किया था और हमें यह बताया गया था कि अब हम अंग्रेजों से आज़ाद हो गए हैं तो अब महारानी को यह विशेषाधिकार क्यों दिया गया? मतलब महारानी आज भी भारत की नागरिक है, कौनसे क़ानून के अनुसार? १८९७ के Indian Citizenship Act के अनुसार| यह बात आपको लेख में कहीं समझ आ जाएगी|
१९४६ में अंगेजों ने भारत को आज़ाद करने से पहले एक क़ानून बनाया था जिसका नाम है Indian independence Act. मित्रों आप में से कूछ राष्ट्रवादी यह बात जानते होंगे कि भारत और पाकिस्तान का विभाज़न हिन्दू या मुसलामानों की तरफ से नहीं अंग्रेजों की तरफ से हुआ था| अंग्रेजों द्वारा बनाए गए Indian independence Act में दो बातें हैं जो मै आपके सामने रखना चाहता हूँ|
1. Two independent dominions India and Pakistan shall be set up in India.
2. Both dominions will be completely self governing in their internal affairs, foreign affairs and national security, but the British monarch will continue to be their head of state represented by the Governor General of India and a new Governor General of Pakistan.
मित्रों सबसे ज्यादा आपतिजनक ये दो बिंदु हैं, जिनमे साफ़ साफ़ लिखा है कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारत और पाकिस्तान दो Dominion States होंगे| मित्रों Dominion States का अर्थ कहीं से भी पता कर लो इसका अर्थ होता है एक बड़े राज्य के अधीन छोटे राज्य| अर्थात भारत और पाकिस्तान आज भी ब्रिटेन के Dominion States हैं न कि Independent Nations. मित्रों Indian independence Act बाज़ार में शायद दस रुपये का मिलता है आप चाहें तो उसे खरीद कर पढ़ सकते हैं| पूरा क़ानून न भी पढ़ें केवल उसकी प्रस्तावना पढ़ लें आपको पता चल जाएगा कि क्यों ब्रिटेन की महारानी का नाम भारत के राष्ट्रपति से ऊपर लिखा जाता है? और आप में से शायद कुछ यह जानते होंगे कि आज भी Comman Wealth Contries में भारत और पाकिस्तान का नाम as a British Dominion States के रूप में लिखा हुआ है न कि as a Indian and Pakistan Republic, मतलब हम आज भी महारानी के Dominion States हैं| कहीं उसी क़ानून के अनुसार तो महारानी भारत में बिना पासपोर्ट के तो नहीं आई थी?
मित्रों यह एक बहुत ही गंभीर प्रश्न है जिसे आज़ादी से पहले ही नेहरु द्वारा उठाया जाना चाहिए था किन्तु नेहरु ने तो इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिया| क्यों कि नेहरु एक सत्ता का भूखा आदमी था जो बड़ी ही चालाकी से भारत का प्रधान मंत्री बना| उसकी चालाकी के सम्बन्ध में मै आपको कुछ बताना चाहता हूँ| मित्रों आज़ादी से पहले Congress Working Committee की एक बैठक हुई थी जिसमे यह निर्णय लिया गया था कि नेहरु और सरदार पटेल के नाम पर कांग्रेस के सभी प्रदेश अध्यक्षों द्वारा चुनाव होगा और जिसके पक्ष में सबसे अधिक वोट पड़ेंगे वही कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद संभालेगा और वही आज़ाद भारत का पहला प्रधान मंत्री होगा| उस समय भारत में कांग्रेस के १५ प्रदेश अध्यक्ष थे जिनमे से १४ ने सरदार पटेल के समर्थन में अपना मत दिया था केवल एक मत नेहरु के पक्ष में था| क्यों कि कांग्रेस में नेहरु को पसंद नहीं किया जाता था, और पसंद इसलिए नहीं किया जाता था क्यों कि नेहरु चरस पीता था, नेहरु सिगरेट पीता था, नेहरु एक ऐयाश व्यक्ति था, नेहरु एक चरित्रहीन व्यक्ति था| माउंट बैटन की पत्नी से उसके सम्बन्ध छिपे नहीं हैं| आप चित्र देख सकते हैं|

तो मित्रों Congress Working Committee के निर्णय के आधार पर सरदार पटेल जीत गए और नेहरु हार गया| और इसी निर्णय के आधार पर सरदार पटेल को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना तय हुआ और आज़ाद भारत का पहला प्रधान मंत्री भी सरदार पटेल को बनाना तय हुआ था| उस समय नेहरु की गद्दारी की एक घटना मै आपके सामने रखना चाहता हूँ| जिस व्यक्ति को हम जीवन भर चाचा नेहरु कहते रहे उसकी गद्दारी मुझे भी नहीं पता थी|
मित्रों जैसा कि आप ने अभी पढ़ा कि कांग्रेस में नेहरु को कोई पसंद नहीं करता था किन्तु नेहरु को पसंद करने वालों में सबसे ऊपर थे अंग्रेज़ और उन्ही अंग्रेजों का नुमाइंदा माउंट बैटन| माउंट बैटन को भारत भेजने का मुख्य कारण ही यह था कि अंग्रेज़ नेहरु को फाँसना चाहते थे और यह काम किया माउंट बैटन और उसकी पत्नी ने| नेहरु कोई जन नेता नहीं था उसे तो अंग्रेजों ने मीडिया द्वारा प्रचारित किया और उसकी उज्वल छवि बनानी चाहि क्यों कि सभी अंग्रेज़ नेहरु के बारे में कहा करते थे कि यह आदमी शरीर से भारतीय है किन्तु इसकी आत्मा बिल्कुल अंग्रेज़ है, अंग्रेज़ भारत छोड़ भी दें तो नेहरु अंग्रेजों का शासन और उनके क़ानून भारत में चलाता रहेगा और भारत हमेशा के लिये British Domenion State बनकर रहेगा| चुनाव हारने के बाद जब नेहरु को लगा कि अब मेरी दाल नहीं गलने वाली तो वह गांधी जी के पास गया और उन्हें धमकाया कि अगर मै प्रधान मंत्री नहीं बना तो मै कांग्रेस में फूट दाल दूंगा| और उस समय गांधी जी शायद अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की| क्यों कि गांधी जी को लगा कि अगर कांग्रेस में फूट पड़ी तो अंग्रेजों को भारत ना छोड़ने का एक बहाना मिल जाएगा कि हम किस कांग्रेस के हाथ में सत्ता सौंपें, नेहरु वाली या सरदार पटेल वाली? और इसी कारण गांधी जी ने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की और सरदार पटेल को एक पत्र लिखा और उसमे गांधी जी ने पटेल से अपना नाम प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार से वापस लेने की प्रार्थना की| और यह पत्र आप चाहें तो देख सकते हैं| गांधी वांग्मय के सौ अंक हैं जो भारत सरकार ने छापे और इनमे से अंतिम कुछ अंकों के आधार पर गांधी जी के सचीव कहे जाने वाले प्यारे मोहन ने एक किताब लिखी जिसका नाम है पूर्ण आहूति| इस किताब में गांधी जी का यह पत्र भी है|
पत्र पढने के बाद सरदार पटेल खुद गांधी जी के पास गए और उनसे कहा कि "बापू अगर आपकी अंतरात्मा कहती है तो मै तो आपका सेवक हूँ और यह पद मै नेहरु के लिये छोड़ सकता हूँ|" और सरदार पटेल ने दरियादिली दिखाते हुए आज़ाद भारत का पहला प्रधान मंत्री बनने का सौभाग्य छोड़ दिया और उसे हथिया लिया नेहरु ने| और उसी के बाद भारत पाकिस्तान के विभाज़न की बात सामने आई है, सरदार पटेल यदि प्रधान मंत्री होते तो ऐसा कभी नहीं होने देते क्यों कि भारत की छोटी छोटी रियासतों को एक करने का काम पटेल ने ही किया था और कश्मीर का विलय भी भारत में पटेल ने ही किया किन्तु नेहरु ने वहां भी टांग अडाई और कश्मीर में धारा ३७० लागू नहीं हुई| और उसी के कारण आज आधा कश्मीर पाकिस्तान के कब्ज़े में है, लद्दाख का कुछ भाग और तिब्बत आज चीन के कब्ज़े में है|
और मित्रों आपमें से कूछ यह भी जानते होंगे कि कांग्रेस पार्टी एक अंग्रेज़ द्वारा ही बनाई गयी थी|
सन १८८५ में मुंबई (उस समय बम्बई) में गोकुल दास तेजपाल भवन में Allan Octavian Hume द्वारा कांग्रेस पार्टी की स्थापना हुई थी| और यह पार्टी एक मनोरंजन क्लब के रूप में स्थापित की गयी थी| अंग्रेज कांग्रेस के बारे में कहा करते थे कि इस क्लब में हम उन भारतीयों को जमा करेंगे जिनके मन में कूछ बलबला है अर्थात देश को आज़ाद करवाने की इच्छा है, ताकि वह बलबला फूट कर कांग्रेस पार्टी में ही बाहर आ जाए, बाहर न जाने पाए| और इसीलिए अंग्रेज़ कांग्रेस को सेफ्टी वॉल्व कहा करते थे| वो तो सौभाग्य था देश का जो गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत आये| उनसे पहले तो कोई जानता तक नहीं था कि कांग्रेस जैसी कोई चीज़ भारत में है, गांधी जी ने इसमें प्राण फूंके, गांधी जी ने अन्न्ग्रेजों द्वारा बनाए गए इस क्लब को जन आन्दोलन का रूप दिया और बाद में खुद गांधी जी ने ही इस पार्टी से किनारा कर लिया, उन्होंने आजीवन कांग्रेस पार्टी का त्याग कर दिया| गांधी जी कांग्रेस पार्टी के सदस्य ही नहीं रहे थे| और अंतिम क्षणों में गांधी जी ने यहाँ तक कह डाला था कि इस कांग्रस को खत्म कर दो नहीं तो यह पार्टी देश को ऐसे ही लूटेगी जैसे कि अंग्रेजों ने लूटा है, क्यों कि गांधी जी नेहरु जैसों की नीयत भांप चुके थे| मित्रों गांधी जी की यह भविष्यवाणी भी सत्य सिद्ध हुई, घोटालों के रिकॉर्ड इस पार्टी ने पिछले ६३ वर्षों में कायम किये और ताज़ा तरीन मामला आप राष्ट्र मंडल खेलों का भी ले सकते हैं| नेहरु ने कांग्रेस को अपने बाप की जागीर बना डाला और इसी की संतानों ने देश को| वरना क्या वजह थी कि कांग्रेस पार्टी को प्रधान मंत्री के पद के लिये अपने घर के बाहर उम्मीदवार ही नहीं मिले| और जो मिले उन्हें खुद कांग्रेस ने ही ख़त्म कर डाला| लाल बहादुर शास्त्री का उदाहरण आप देख सकते हैं| क्यों कि इनकी जड़ तो नेहरु ही था|
और आप जानते होंगे कि १४ अगस्त १९४७ की रात गांधी जी दिल्ली ही नहीं आये, वे नोआखाली में थे| कांग्रेस के बड़े बड़े नेता गांधी जी को बुलाने गए किन्तु उन्होंने मन कर दिया और कहा कि मै मानता नहीं कि आज़ादी जैसी कोई चीज़ इस देश में आ रही है| यह केवल सत्ता के हस्तांतरण का सौदा हुआ है| गांधी जी ने नोआखाली से ही एक Press Statement दिया था जो कि पूर्ण आहुति में छपा भी था कि "यह जो कथित आज़ादी आ रही है यह हमारा लक्ष्य नहीं था, यह आज़ादी मै नहीं चाहता था, ये तो सत्ता के लालची लोग ले कर आये हैं|" वरना क्या कारण था कि भारत की आज़ादी की क्रांति का सबसे बड़ा पुरोधा ही आज़ादी के जश्न में शामिल नहीं हुआ? क्यों कि सत्ता के हस्तांतरण पर नेहरु ने हस्ताक्षर किया था और भारत को एक British Domenion State बना डाला था| माउन्ट बैटन ने अपनी सत्ता नेहरु को सौंपी थी और हमें समझाया गया कि स्वराज आ गया है, किन्तु यह स्वराज नहीं था और शायद यही समझाने महारानी का भारत में आगमन बिना पासपोर्ट और वीजा के हुआ कि तुम अभी भी मेरे गुलाम ही हो|

रविवार, 28 अगस्त 2011

वंदे मातरम और इस्लाम

घटना 30 दिसंबर 1939 की है। पांडिचेरी में योगी श्रीअरविन्द संध्याकाल अपने शिष्यों के साथ बैठे हुए थे। तभी किसी ने नए समाचारों की चर्चा करते कहा, “कुछ लोगों को ‘वंदे मातरम’ के राष्ट्रीय गान होने में आपत्ति है और कुछ कांग्रेसी उस के कुछ पदों को निकाल देने के पक्ष में हैं।” इस पर श्रीअरविन्द ने टिप्पणी की, “उस स्थिति में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति छोड़ देनी चाहिए।” शिष्य ने यह भी बताया कि वंदे-मातरम गान का विरोध क्यों है, “तर्क यह है कि इस गान में दुर्गा आदि हिन्दू देवी-देवताओं की बात कही गई है जो मुसलमानों के लिए अप्रिय है।”

तब श्रीअरविन्द ने समझाया, “लेकिन यह धार्मिक गान नहीं है। यह एक राष्ट्रीय गान है और राष्ट्रीयता के भारतीय स्वरूप में स्वभावतः हिन्दू दृष्टि रहेगी। अगर इसे यहाँ स्थान न मिल सके तो हिन्दुओं से कहा जा सकता है कि वे अपनी संस्कृति छोड़ दें। … हिन्दू अपने भगवान की पूजा क्यों न करें? अन्यथा हिन्दुओं को या तो इस्लाम स्वीकार कर लेना चाहिए या यूरोपीय संस्कृति या फिर नास्तिक बन जाना चाहिए।”

आज उस प्रसंग से क्या कोई शिक्षा मिलती है? यह भी जान लें कि उस समय उठे विरोध के बाद कांग्रेस ने इस गीत का केवल पहला अंश गाने का निर्णय किया, ताकि ‘देवी-देवताओं’ संबंधी मुसलमानों की आपत्ति खत्म हो जाए। उस समय तक वंदे-मातरम गान अपने तीनों अंतरों समेत पूरा गाया जाता था। किन्तु इस्लामी आपत्ति को देखते हुए इस गीत के बाद वाले दो अंतरे गाना बंद कर दिया गया। इस से मुस्लिम नेता संतुष्ट हुए। किन्तु कुछ समय बीतने बाद कहा गया कि यह पूरा गीत ही आपत्तिजनक है। पुनः कांग्रेस द्वारा आपत्तियों को संतुष्ट करने का ही प्रयत्न किया जाता रहा। अंततः सारी आपत्तियों का एकमुश्त हल करने हेतु मुसलमानों का अलग देश ही बना दिया गया!

तब श्रीअरविन्द वाली बात ही फलीभूत हुई। कम से कम पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में लाखों हिन्दुओं को अपनी संस्कृति और धरती या प्राण तक छोड़ देने पड़े। जो इस्लाम कबूल कर जिए, उन्होंने तो संस्कृति छोड़ी ही। किन्तु समस्या खत्म नहीं हुई। शेष बचे भारत में (जो विभाजन के तर्क से केवल हिन्दुओं का देश होना था), कुछ ही समय बाद फिर से वही आपत्तियाँ शुरू हो गईं। और फिर वही तुष्टीकरण! इस बीच कश्मीर में हिन्दुओं को अपनी संस्कृति, धरती और प्राण छोड़ देने पड़े। असम, बंगाल, केरल आदि के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी शनैः-शनैः वही हो रहा है। इस्लामी पक्ष से आपत्ति और हिन्दू पक्ष का खात्मा, यह ऐतिहासिक प्रक्रिया लगभग सौ साल से चल रही है। इस का अंत किस प्रकार होगा?

इस वृहत प्रश्न को ध्यान में रखकर पुनः वंदे-मातरम गान पर आएं। यह बंग-भंग (1905) के विरुद्ध आंदोलन के समय से ही भारतीय देशभक्तों का अनुपम गीत रहा है। इसे कई मुस्लिम भी गाते रहे हैं। पर यहाँ एक बात पहले स्पष्ट हो जानी चाहिए। कि मुस्लिम जनता और उनके राजनीतिक नेताओं में भेद करना जरूरी है।

मुस्लिम जनता तो अपने आप में हिन्दू जनता की तरह ही है। अपने अवलोकन से आश्वस्त होकर वह भी अच्छे और सचाई भरे लोगों, प्रयासों को समर्थन देती है – बशर्ते उसके नेता इसमें बाधा न डालें (जैसा बुखारी ने अभी शुरू किया)। इसीलिए तो रामलीला मैदान और देश भर में मुस्लिम भी अन्ना के पक्ष में बोल रहे हैं। किन्तु मुस्लिम नेता दूसरी चीज होते हैं। उनके लिए इस्लाम ही सब कुछ है। वे हर चीज को इस्लामी तान पर खींचने की जिद करते हैं, और इसके लिए हर दाँव लगाने से नहीं चूकते। इसलिए कई बार उनकी शिकायतें नकली होती हैं, वह किसी छिपे उद्देश्य का साधन होती हैं। इसी बात को न समझकर हिन्दू महानुभाव सदैव मूर्ख बनते रहे हैं। अयातुल्ला खुमैनी ने एक बार कहा भी था कि “पूरा इस्लाम ही राजनीति है”। अभी बुखारी साहब वही कर के दिखा रहे हैं।

इसलिए इस बात को दरकिनार नहीं करना चाहिए कि इस्लाम के नाम पर वन्दे-मातरम गान का सदैव विरोध भी होता रहा है। इमाम बुखारी ने कोई नई बात नहीं कही। अभी दो साल पहले ‘जमाते उलेमा ए हिन्द’ ने वन्दे-मातरम गाने के खिलाफ फतवा दिया था। इसलिए इस पर हिन्दुओं द्वारा सफाई देना बेकार है। अन्ना के सहयोगी उसी तरह बुखारी को मनाने गए हैं, जैसे उस जमाने में गाँधीजी करते थे। उसका क्या नतीजा रहा? पूरे इतिहास को याद करें।

इस्लामी सिद्धांत की दृष्टि से बुखारी गलत नहीं हैं। लेकिन जैसा राजनीति में होता है, इस गीत पर आपत्ति उठाने और स्थगित कर देने में राजनीतिक परिस्थितियों का तर्क अधिक चला है। इसीलिए अरविन्द केजरीवाल जैसे बुद्धिमान या श्रीश्रीरविशंकर जैसे संत निरर्थक प्रयास कर रहे हैं। वे बुखारी जैसे आपत्तिकर्ताओं को इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप संतुष्ट करने का प्रयास करते हैं। यानी वह काम करना चाहते हैं जहाँ गाँधी जैसे सत्यनिष्ठ सेवक बुरी तरह विफल रहे। हमें इतिहास से सीख लेनी चाहिए। कि यह तर्क-वितर्क का मसला ही नहीं है।

भारत के निकट इतिहास में कई उदाहरण हैं – सर सैयद से लेकर मौलाना आजाद, अब्दुल बारी, शौकत अली, आदि – जिन्होंने राष्ट्रवाद, हिन्दू-मुस्लिम एकता, गो-हत्या, हिजरत और वतनपरस्ती पर समय-समय पर विपरीत मंतव्य दिए। तदनुरूप ऐसे या वैसे आवाहन किए। तब उन अंतर्विरोधी वक्तव्यों में इस्लामी सिद्धांत क्या था? अतः समझना चाहिए कि इस्लामी मामलों में फैसले देश-काल-राजनीति और शक्ति सापेक्ष होते रहे हैं। उसमें केवल सिद्धांत जैसी कोई चीज नहीं होती। इसीलिए उसे तर्क और सदभावना मात्र से तय करने की कोशिशें व्यर्थ है। गाँधीजी इसीलिए पिटे थे।

वंदे-मातरम गान या भारत माता की पूजा आदि चीजों पर कुरान, हदीस या सुन्ना को आधार बना कर समझाना वैसे भी अन्याय है। यह तो हर चीज के लिए इस्लाम को कसौटी मान लेना हुआ। विविध पंथों, विचारों को मानने वाली जनता के लिए किसी एक पंथ को ही आधार बनाकर किसी काम की परख गलत है। जिस प्रकार मुसलमानों को कोई काम करने या न करने के लिए ईसाइयत के निर्देश को आधार नहीं बनाया जा सकता, उसी तरह इस्लाम को कसौटी बनाकर ईसाइयों या हिन्दुओं को कुछ करने या न करने के लिए कहना भी अनुचित है।

वस्तुतः इस्लाम को आधार मान कर वंदे-मातरम गान की सफाई देना व्यवहार में विपरीत फलदायी होता रहा है। इस बहस में जाने से कट्टर इस्लामपंथी ही मजबूत होते हैं। यदि स्वामी रामदेव कहते हैं कि वंदे-मातरम में “मूर्ति-पूजा का कर्मकांड” नहीं, इसलिए मुसलमानों को विरोध नहीं करना चाहिए, तो इसका मतलब है कि वे मूर्ति-पूजा को गलत मान रहे हैं। यह कौन सी बात हुई? किस आधार पर मूर्ति-पूजा गलत और काबे को सिजदा करना सही है? मगर यदि आप ऐसा ही मान लेते हैं, तब तो बात बस इतनी बचती है कि इस्लाम में क्या जायज है, क्या नहीं। उसका फैसला कोई मुफ्ती या ईमाम करेंगे कि एक हिन्दू संत?

दरअसल वंदे-मातरम विरोध कोई स्वतंत्र मुद्दा नहीं। यह इस्लाम और देश-प्रेम के संबंध से जुड़ा हुआ है। इस पर तरह-तरह की दलीलें जरूर रही। किंतु इस पर मुस्लिम चिंतकों में मूलतः कोई गंभीर मतभेद नहीं है। इस्लाम में कौम या वतन का सवाल हिजरत, दारुल-हरब तथा दारुल-इस्लाम की बुनियादी धारणाओं से अभिन्न है। हमारे देश में इसका एक बार फैसला तो 1947 में ही हो चुका। इस्लामी नेताओं और मुस्लिम जनमत ने देश नहीं, बल्कि इस्लाम को तवज्जो दी। तब से इस्लामी चिंतन में तो कुछ नहीं बदला। अतः यदि हम उस फैसले की सीख भुला कर फिर उसी कवायद में लगते हैं तो यह फिर उसी दिशा में जाएगा।

कड़वी सच्चाइयों से कतरा कर हिन्दू अपना, देश का या मुसलमानों का भी भला नहीं कर सकेंगे। याद रखना होगा कि कम्युनिज्म की तरह इस्लाम भी अंतर्राष्ट्रीय-राजनीतिक मतवाद है जिस में ‘इस्लाम ही सर्वस्व’ के सामने परिवार, समाज या देश किसी भी नाम पर एकता को कुफ्र माना गया। इसीलिए शाह वलीउल्लाह, सैयद बरेलवी, सर सैयद से लेकर मौलाना हाली, मौदूदी, सर इकबाल, मौलाना आजाद, मुह्म्मद अली, शौकत अली और जिन्ना तक रहनुमाओं की पूरी श्रृंखला ने भारतीय कौम या भारतीय समाज जैसी चीज को सिरे से खारिज किया था। उनके लिए दुनिया भर के मुसलमानों की उम्मत और खलीफत ही केंद्रीय चिंता थी।

अल्लामा इकबाल ने देश-प्रेम को उसूलन गलत ठहराया था, “इन ताजा खुदाओं में सब से बड़ा वतन है। जो पैरहन है उस का, वो मजहब का कफन है”। यानी वतन-परस्ती जो माँगती है, वह इस्लाम के लिए मौत समान है। इसलिए उसे हेच बताते हुए इकबाल कहते हैं, “कौम मजहब से है; मजहब जो नहीं, तुम भी नहीं। जज्बे बाहम जो नहीं, महफिले अंजुम भी नहीं” । उन्होंने देश-भक्ति को बुतपरस्ती का ही एक रूप बताया जिससे इस्लाम को गहरी घृणा है। इसलिए उनका कौल था, “मुस्लिम हैं हम / वतन है सारा जहाँ हमारा”। इसलिए वंदे-मातरम पर उलेमा के फतवे से लेकर मौलाना बुखारी की आपत्ति तक में कोई नई बात नहीं। इस्लाम को कसौटी मानें तो उसमें देश-प्रेम की कोई औकात नहीं।

इसलिए, समस्या बुखारी साहब या जमाते-इस्लामी के नेता या देवबंद नहीं है। समस्या वह मजहबी विचारधारा है जिससे वे निर्देशित होते हैं। जो देश से बढ़कर उम्मत को मानती है। पर हमारे नेता या बुद्धिजीवी उस विचारधारा से नहीं उलझते। उलटे, कन्नी कटाकर इस्लामी निर्देशों की ही सुंदर व्याख्या ढूँढने लगते हैं। यानी जो समस्या का कारण है उसे ही कसौटी बना लेते हैं। कि इस्लाम में ये नहीं, वो है। इस कवायद से उलटा परिणाम होना ही है। उलेमा का अपने अंध-विश्वास पर भरोसा और बढ़ जाता है कि इस्लामी हुक्म देश, समाज, मानवता आदि हर चीज से ऊपर हैं। इतना ऊपर है कि दूसरे भी यह मानते हैं। इसी विन्दु पर गाँधी जी से लेकर केजरीवाल जी तक गलती करते रहे हैं। जिसका खमियाजा हिन्दुओं को भुगतना पड़ता रहा है।

गलती यह है कि जिस विचार से लड़ाई होनी चाहिए, उसी को सिरोपा चढ़ाया जाने लगता है। तब सामान्य मुस्लिम भी विवेकशील चिंतन करने के लिए कैसे प्रेरित होंगे, जब हम ने एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी विचार से लड़ने के बजाए उस के समक्ष श्रद्धा-नत रहने की नीति बना रखी है? सच तो यह है कि ऐसा करके हम ने भारतीय मुसलमानों को इस्लाम के मजहबी-राजनीतिक अंतर्राष्ट्रीयतावाद के अधीन फँसे रहने के लिए विवश छोड़ दिया है। वे विश्व कम्युनिज्म की तरह विश्व खलीफत के राजनीतिक सपनों में उलझाए जाते हैं। इसे हजारों विवेकशील, देशभक्त, उदार मुसलमान भी नहीं रोक पाते। उनकी मजहबी किताबें उनकी मदद नहीं करतीं। वह केवल बुखारियों की ही करती हैं।

यह संयोग नहीं है कि मुसलमानों में देशभक्त, उदार, मानवतावादी लेखक, कवि या नेता इस्लाम की कमोबेश उपेक्षा कर के ही वैसे हो पाते हैं। गालिब ने भी अपने को ‘आधा मुसलमान’ ही कहा था। इसीलिए उनकी बातों का असर भी मुस्लिम समुदाय पर नहीं होता। डॉ. भीम राव अंबेदकर की ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’, मुशीर उल हक की ‘इस्लाम इन सेक्यूलर इंडिया ’, जीनत कौसर की ‘इस्लाम एंड नेशनलिज्म’ अथवा शबीर अहमद व आबिद करीम की ‘द रूट्स ऑफ नेशनलिज्म इन द मुस्लिम वर्ल्ड’ आदि पुस्तकों के अध्ययन से इस कड़वी सचाई को समझा जा सकता है।

भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आम मुसलमानों में उदार लेखकों, नेताओं की नहीं चलती। खुद जिन्ना जैसे आधुनिक, सेवाधर्मी, लोकतांत्रिक, तेज-तर्रार नेता भी मुसलमानों के बेताज बादशाह तभी बने जब उन्होंने इस्लामी लफ्फाजी अपनाई। जबकि निजी जीवन में उन का इस्लाम से कोई लेना-देना न था। उलटे जिन्ना का रहन-सहन, खान-पान, आदि सब कुछ इस्लामी निर्देशों के विपरीत था। जबकि पूरे इस्लामी तरीके से जीने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान मुसलमानों के मान्य नेता न हो सके, क्योंकि वे इस्लामी माँगे नहीं कर रहे थे। यह अंतर ध्यान देने योग्य है।

अतः जैसे उस जमाने में बादशाह खान जैसे नेता आम मुसलमानों को प्रभावित नहीं कर पाए थे, वैसे ही आज हमारे पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम या सलमान खुर्शीद, एम. जे. अकबर आदि नहीं कर पाते। आज भी सिमी जैसे संगठन या बुखारी, जिलानी, मदनी आदि ही मुस्लिम नेता हैं जो भारत के विरुद्ध जिहाद करने वाले ओसामा बिन लादेन को अपना नायक मानते हैं। या सैयद शहाबुद्दीन जो बात-बात में अरब देशों की तानाशाही व जहालत को सिर नवाते हैं और स्वाधीनता दिवस का बहिष्कार कर देश-भक्ति के प्रति खुली अवहेलना प्रकट करते हैं।

यह उसी परंपरा की कड़ी है जब अपने जमाने के सबसे बड़े मुस्लिम नेता मौलाना शौकत अली ने भारत पर अफगानिस्तान के हमले की सूरत में अफगानिस्तान का साथ देने की घोषणा की थी। तब कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर ने अनेक मुस्लिम महानुभावों से स्वयं पूछा था कि यदि कोई मुस्लिम हमलावर भारत पर हमला कर दे तो वे किस का साथ देंगे? उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। उसी प्रसंग में प्रख्यात विदुषी और कांग्रेस अध्यक्षा रही एनी बेसेंट ने 1921 में नोट किया था, “मुसलमान नेता कहते हैं कि यदि अफगानिस्तान भारत पर हमला करता है तो वे आक्रमणकारी मुस्लिमों का साथ देंगे और उन से लड़ने वाले हिंदुओं का कत्ल करेंगे। हम यह मानने के लिए मजबूर हैं कि मुसलमानों का मुख्य लगाव मुस्लिम देशों से है, मातृभूमि से नहीं।”

इसलिए अयातुल्ला खुमैनी, बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, अहमदीनेजाद जैसी विदेशी हस्तियों के आह्वान पर सारी दुनिया में लाखों मुसलमानों का उठ खड़े होने के पीछे एक संगति है। यह प्रवृत्ति जाने या अनजाने अपने देश की उपेक्षा और विरोध भी करने के लिए तैयार रहती है। शर्त यह है कि मुद्दा इस्लामी हित होना चाहिए। इसी कारण आज पाकिस्तान में निरंतर तालिबानी हमलों के बावजूद वहीं तालिबानों का समर्थक मजबूत तबका भी है। वे अपने वतन से बढ़कर इस्लामी खलीफत के दीवाने हैं।

इतिहास और वर्तमान, सिद्धांत और व्यवहार के सभी आकलन यही दिखाते हैं कि इस्लामी निर्देशों को आधार बनाकर कोई हल नहीं मिल सकता। कहीं न कहीं इस्लाम को नमस्कार करके कहना पड़ेगा, कि हे देवता! आपकी एक सीमा है। जिसके बाद मानवता की सामान्य बुद्धि से सही और गलत का फैसला होता है। उस पर किसी किताब का हुक्म नहीं चलाया जा सकता, और नहीं चलना चाहिए। दुनिया के लोगों की आम सहमति से जहाँ उचित और अनुचित का निर्णय होना चाहिए। मगर वह घोषणा होने में अभी देर है। सब लोग किसी सऊदी गोर्बाचेव के आने का इंतजार कर रहे हैं, जो दीवार पर लिखे सच को सच मान कर इस्लामी जगत में पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त का आरंभ करेगा।

मगर तब तक हम क्या करें? इस पर श्रीअरविंद ने कोई सौ वर्ष पहले कहा था कि चाटुकारिता से हिंदू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती। न इस्लाम की लल्लो-चप्पो से मुसलमानों को राष्ट्रीय धारा में जोड़ा जा सकता है। अंतरिम समाधान का सरल और सटीक उपाय भी श्रीअरविंद ने 1926 में ही बता दिया थाः “मुसलमानों को तुष्ट करने का प्रयास मिथ्या कूटनीति थी। सीधे हिंदू-मुस्लिम एकता उपलब्ध करने की कोशिश के बजाए यदि हिंदुओं ने अपने को राष्ट्रीय कार्य में लगाया होता तो मुसलमान धीरे-धीरे अपने-आप चले आते। …एकता का पैबंद लगाने की कोशिशों ने मुसलमानों को बहुत ज्यादा अहमियत दे दी और यही सारी आफतों की जड़ रही है।”

दुर्भाग्य से हिंदुओं ने तब शुतुरमुर्गी रास्ता अपनाया था। परिणाम 1947 में सामने आ गया। यदि फिर वही कोशिशें होती रहे, तब हम किस परिणाम की आशा कर सकते हैं!

शंकर शरण


सोमवार, 15 अगस्त 2011

टीपू सुल्तान की सच्चाई

टीपू सुलतान हैदर अली की म्रत्यु के बाद उसका पुत्र टीपू सुलतान मैसूर की गद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठते ही टीपू ने मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया। मुस्लिम सुल्तानों की परम्परा के अनुसार टीपू ने एक आम दरबार में घोषणा की ---"मै सभी काफिरों को मुस्लमान बनाकर रहूंगा। "तुंरत ही उसने सभी हिन्दुओं को फरमान भी जारी कर दिया.उसने मैसूर के गाव- गाँव के मुस्लिम अधिकारियों के पास लिखित सूचना भिजवादी कि, "सभी हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षा दो। जो स्वेच्छा से मुसलमान न बने उसे बलपूर्वक मुसलमान बनाओ और जो पुरूष विरोध करे, उनका कत्ल करवा दो.उनकी स्त्रिओं को पकडकर उन्हें दासी बनाकर मुसलमानों में बाँट दो। " इस्लामीकरण का यह तांडव टीपू ने इतनी तेजी से चलाया कि , पूरे हिंदू समाज में त्राहि त्राहि मच गई.इस्लामिक दानवों से बचने का कोई उपाय न देखकर धर्म रक्षा के विचार से हजारों हिंदू स्त्री पुरुषों ने अपने बच्चों सहित तुंगभद्रा आदि नदिओं में कूद कर जान दे दी। हजारों ने अग्नि में प्रवेश कर अपनी जान दे दी ,किंतु धर्म त्यागना स्वीकार नही किया। टीपू सुलतान को हमारे इतिहास में एक प्रजावत्सल राजा के रूप में दर्शाया गया है।


टीपू ने अपने राज्य में लगभग ५ लाख हिन्दुओ को जबरन मुस्लमान बनाया। लाखों की संख्या में कत्ल कराये। कुछ एतिहासिक तथ्य मेरे पास उपलब्ध जिनसे टीपू के दानवी ह्रदय का पता चलता है............... टीपू के शब्दों में "यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए,तब भी में हिंदू मंदिरों को नष्ट करने से नही रुकुंगा."(फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल) "दी मैसूर गजेतिअर" में लिखा है"टीपू ने लगभग १००० मंदिरों का ध्वस्त किया। २२ मार्च १७२७ को टीपू ने अपने एक सेनानायक अब्दुल कादिर को एक पत्र likha ki,"१२००० से अधिक हिंदू मुस्लमान बना दिए गए।" १४ दिसम्बर १७९० को अपने सेनानायकों को पात्र लिखा की,"में तुम्हारे पास मीर हुसैन के साथ दो अनुयाई भेज रहा हूँ उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बंदी बना लेना और २० वर्ष से कम आयु वालों को कारागार में रख लेना और शेष सभी को पेड़ से लटकाकर वध कर देना" टीपू ने अपनी तलवार पर भी खुदवाया था ,"मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि, में संसार से काफिरों(गैर मुसलमान) को समाप्त कर दूँ" ऐसे कितने और ऐतिहासिक तथ्य टीपू सुलतान को एक मतान्ध ,निर्दयी ,हिन्दुओं का संहारक साबित करते हैं क्या ये हिन्दू समाज के साथ अन्याय नही है कि, हिन्दुओं के हत्यारे को हिन्दू समाज के सामने ही एक वीर देशभक्त राजा बताया जाता है, अगर टीपू जैसे हत्यारे को भारत का आदर्श शासक बताया जायेगा तब तो सभी इस्लामिक आतंकवादी भारतीय इतिहास के ऐतिहासिक महान पुरुष बनेगे।

महात्मा गान्धी- कुछ अनकहे कटु तथ्य

१. अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (१९१९) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाए। गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से मना कर दिया।

२. भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचाएं, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकार कर दिया। क्या आश्चर्य कि आज भी भगत सिंह वे अन्य क्रान्तिकारियों को आतंकवादी कहा जाता है।

३. ६ मई १९४६ को समाजवादी कार्यकर्ताओं को अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष
अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।

४. मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए १९२१ में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग १५०० हिन्दु मारे गए व २००० से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया,
वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।

५.१९२६ में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वरूप गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दु-मुस्लिम एकता के लिए अहितकारी घोषित किया।

६.गान्धी ने अनेक अवसरों पर छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोविन्द सिंह जी को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।

७.गान्धी ने जहाँ एक ओर काश्मीर के हिन्दु राजा हरि सिंह को काश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दु बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।

८. यह गान्धी ही था जिसने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।

८. कॉंग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिए बनी समिति (१९३१)ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गाँधी कि जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।

९. कॉंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहा था, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पदत्याग कर दिया।

१०. लाहोर कॉंग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।

११. १४-१५ १९४७ जून को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कॉंग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुंच प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब
जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।

१२. मोहम्मद अली जिन्ना ने गान्धी से विभाजन के समय हिन्दु मुस्लिम जनसँख्या की सम्पूर्ण अदला बदली का आग्रह किया था जिसे गान्धी ने अस्वीकार कर दिया।

१३. जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनातह् मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और १३ जनवरी १९४८ को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली
की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।

१४. पाकिस्तान से आए विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।

१५. २२ अक्तूबर १९४७ को पाकिस्तान ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउँटबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड़ रुपए की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल ने
आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन किया- फलस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी। उपरोक्त परिस्थितियों में नथूराम गोडसे नामक एक युवक ने गान्धी का वध कर दिया। न्य़यालय में चले
अभियोग के परिणामस्वरूप गोडसे को मृत्युदण्ड मिला किन्तु गोडसे ने न्यायालय में अपने कृत्य का जो स्पष्टीकरण दिया उससे प्रभावित होकर उस अभियोग के न्यायधीश श्री जे. डी. खोसला ने अपनी एक पुस्तक में लिखा-"नथूराम का अभिभाषण दर्शकों के लिए एक आकर्षक दृश्य था। खचाखच भरा न्यायालय इतना
भावाकुल हुआ कि लोगों की आहें और सिसकियाँ सुनने में आती थीं और उनके गीले नेत्र और गिरने वाले आँसू दृष्टिगोचर होते थे। न्यायालय में उपस्थित उन प्रेक्षकों को यदि न्यायदान का कार्य सौंपा जाता तो मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि उन्होंने अधिकाधिक सँख्या में यह घोषित किया होता कि नथूराम निर्दोष है।" तो भी नथूराम ने भारतीय न्यायव्यवस्था के अनुसार एक व्यक्ति की हत्या के अपराध का दण्ड मृत्युदण्ड के रूप में सहज ही स्वीकार किया। परन्तु भारतमाता के विरुद्ध जो अपराध गान्धी ने किए, उनका दण्ड भारतमाता व उसकी सन्तानों को भुगतना पड़ रहा है। यह स्थिति कब बदलेगी? २ अक्तूबर (गान्धी जयन्ती) पर यह विषय विशेष रूप से विचारणीय है, जिससे कि हम भारत के भविष्य का मार्ग निर्धारित कर सकें।


जय प्रकाश गुप्त, अम्बाला छावनी।

गोधरा पर निर्णय-धर्मनिरपेक्ष साजिशों का भण्डाफोड़

आज से नौ वर्षों पूर्व गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस की एस-6 बोगी में धटी वीभत्स हृदय विदारक घटना पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक हटाये जाने के बाद आखिरकार विशेष अदालत ने अपना निर्णय सुना ही दिया।

अयोध्या के विवादित स्थल पर निर्णय सुनाये जाने के बाद यह देश का ऐसा महत्वपूर्ण निर्णय था जिस पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई थी। अहमदाबाद की विशेष अदालत ने साबरमती काण्ड को एक गहरी साजिश मानते हुए 11 अभियुक्तों को सजा – ए -मौत तथा 20 अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। विशेष अदालत ने 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने जो यह व्यवस्था दी थी कि फांसी की सजा दुर्लभ से भी दुर्लभतम श्रेणी के तहत दी जानी चाहिए का अनुपालन करते हुए 11 प्रमुख अभियुक्तों अब्दुल रज्जाक कुक्कूर, बिलाल इस्माइल उर्फ बिलाल हाजी, रमजारी बिनयामीन बहरा, हसन अहमद चरखा उर्फ लालू, जाबर बिरयामीन बहरा, महबूब खालिद चंद्रा, सलीम उर्फ सलमान चंद्रा, सिराज मुहम्मद मेड़ा उर्फ बाला, इरफान कलंदर उर्फ इरफान भोपो, इरफान मोहम्मद पाटलिया व महबूब हसन उर्फ लती को फांसी की सजा सुनायी है। वहीं 20 अन्य अभियुक्तों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। देश के न्यायिक इतिहास में ंऐसा पहली बार हुआ है कि इतने बड़े अपराध में 31 मिनट में 31 अभियुक्तों को एक साथ सजा सुनायी गयी। हालांकि अभी यह प्रकरण 90 दिनों के बाद हाईकोर्ट जाएगा व फिर सर्वोच्च न्यायालय होते हुए राष्ट्रपति भवन तक का सफर दया याचिका के माध्यम से लम्बा सफर तय करेगा। अतः पुरा मामला अभी काफी लम्बा चलेगा। हिंदू विरोधी व मुस्लिम तुष्टिकरण में लगे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों व वामपंथी लेखकों को अयोध्या निर्णय की तरह यह निर्णय भी अच्छा नहीं लग रह है। अदालत ने साबरमती काण्ड को एक सुनियोजित साजिश बताकर उन धर्मनिरपेक्ष नेताओं विशेष रूप से पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव सरीखे नेताओं की बोलती तो अवश्य बंद ही कर दिया है जिन्होने अपनी हिंदू विरोधी मानसिकता के चलते व मात्र मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए तथा निरापराध हिंदुओं के साथ हुए अन्याय को नजरांदाज करते हुए 4 सितम्बर, 2004 को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज यू सी बनर्जी के नेतृत्व में एक कमेटी का गठन कर दिया जिसने 12 जनवरी, 2005 को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा कि ,साबरमती एक्सप्रेस की एस – 6 बोगी में आग जानबूझकर किसी षड्यंत्र के तहत नहीं लगायी गयी। यह रिपोर्ट पूरी तरह से नानावटी आयोग के निष्कर्षों के विपरीत थी क्योकि नानावटी आयोग का मत था कि, यह पूरी घटना एक साजिश थी।आज यही कारण है कि हिंदू विरोधी मानसिकता के चलते लालू प्रसाद यादव बिहार की जनता की नजरों में अछूत हो गये हैं। उन्होंने सोचा था कि निरापराध हिंदुओं की हत्या के षड़यंत्रों में मुसलमानों को बचाकर वे बिहार की सत्ता का सुख भोग लेंगे लेकिन यह दिवास्वप्न ही रह गया। गोधरा काण्ड व उसके बाद भड़के दंगों को लेकर देश के तथाकथित सेक्यूलरों व मानवाधिकारियों ने जिस प्रकार से अपनी विकृत मानसिकता के आंसू बहाए अब उक्त निर्णय से उनके आंसुओं का पर्दाफाश हो चुका है। विशेष अदालत का निर्णय उन लोगों के लिए गहरा आघात है जो उक्त निर्मम व दुर्लभतम धृणित हत्याकाण्ड को महज राजनैतिक स्वार्थों के चलते इस बर्बर दुर्घटना को मात्र घटना करार दे रहे थे। अतः वे सभी राजनैतिक दल व्यक्ति व संगठन भी उस घटना के उतने ही बड़े आरोपी हैं जो कि उक्त घटना के आरोपियों को बचाने का घृणित खेल खेल रहे थे। यह हत्याकाण्ड आजादी के बाद देश का ऐसा शर्मनाक हत्याकाण्ड था जिसने मानवता को हिला कर रख दिया था लेकिन उसके बाद की राजनैतिक घटनाओं ने तो देश को और भी बुरी तरह से झकझोर दिया। भारतीय संविधान व धर्मनिरपेक्षता के रक्षकों ने भी अपनी सारी मर्यादाएं तोड़ दी तथा उन्हें पूरी घटनाओं में केवल एक ही व्यक्ति पर सारा दोष नजर आया वह थे नरेंद्र मोदी। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने गोधराकाण्ड के फैसले पर लगी रोक हटाकर उक्त सभी लोगों की राजनीति पर ब्रेक लगा दी है। लेकिन वे लोग अब भी अपने घृणित कारनामों से पीछे नहीं हटने वाले। वामपंथी विचारधारा के लेखको ने उक्त निर्णय की आलोचना करते हुए अपनी लेखनी उठा ली है तथा ऐसे लेखक न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी प्रश्नचिन्ह उठाने लगे हैं । ऐसे लेखकों, मानवाधिकारियों व सेकुलरिस्टों को हिंदुओं के साथ घटी घटना महज कल्पना लगती है। पता नहीं क्यों ऐसे लोग अपने आप को हिंदू लिख रहे हैं। सवतंत्र भारत में अंग्रेजी मानसिकता से वशीभूत लोग ही हिंदूओं व मुसलमानों के बीच उत्पन्न होती सामाजिक समरसता को ध्वंस करने का षड़यंत्र करते हैं व फिर कोई घटना घटित होने पर विकृत रूप से अपने खेल में लग जाते हैं। आज धन्य हैं वे लोग जिन्होंने गोधरा को लेकर अपने अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और आज उक्त दुर्लभतम ऐतिहासिक हत्याकाण्ड पर न्याय का मार्ग प्रशस्त हुआ है। आज वे सभी लोग भी उक्त हत्याकाण्ड में उतने ही दोषी हैं जो कि येन केन प्रकारेण उसे दुर्घटना करार दे रहे थे। यह निर्णय उन लोगों को भी करारा जबाब है।अतः वे सभी लोग भी लोकतांत्रिक ढंग से सजा के हकदार हैं जो उस वीभत्स घटना पर वोटबैंक की राजनीति कर रहे थे। रही बात गोधरा काण्ड के बाद भड़के दंगों की तो उसके पीछे एक बडा महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि उस समय तथाकथित सेक्यूलर मीडिया ने उक्त वीभत्स घटना को दरकिनार करके बेहद पक्षपातपूर्ण ढंग से घटनाओं का प्रकाशन-प्रसारण किया था जिसके कारण भी वहां पर तनाव बढ़ा। अतः अब चूंकि पूरा मामला न्यायपालिका में गति पकड़ चुका है तो अब इस प्रकार की घटनाओं पर विकृत राजनीति बंद होनी चाहिए तथा आशा की जानी चाहिए की अन्ततः जीत सत्य व न्याय की होगी।

बंग्लादेशि घुसपैठ – एक आक्रमण

क्या बंग्लादेशियों से भारत के अनेक नगरों व सीमावर्ती क्षेत्रों में अरसे से योजनाबध्द रूप से होने वाली घुसपैठ पर हमारी राजनीतिक उपेक्षा नए जनसांख्यिक दबाव डालकर असम को मुस्लिम बहुल प्रदेश बना सकती है और हमारे महानगरों को भी असुरक्षित बना देगी? सारे देश में ये घुसपैठिए जैसे-जैसे फैलते जा रहे हैं, हमारी सरकार व राजनेताओं का ढुलमुल रवैया, ऐसा प्रतीत होता है, अपने वोट बैंक बढ़ाने के कारण उन्हें भारत का नागरिक बनाने हेतु भी सक्रिय है। एक आंकड़े के अनुसार लगभग 3 करोड़ से अधिक बंग्लादेशी देश में अवैध रूप से घुसे हैं और यह सिलसिला आज भी चल रहा है। सर्वाधिक शर्मनाक बात यह है कि इस पूरी-गैर कानूनी प्रक्रिया में हमारे अनेक राजनीतिकबाज और बुध्दिजीवी उनके मानवीय संघर्ष और अच्छी जिंदगी की ललक के नाम पर इसे तर्क-सम्मत ठहरा रहे हैं और इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि आतंकवादी संगठन उन्हें मोहरों की तरह प्रयुक्त करते हैं। क्या विश्व के किसी भी देश में, जानने पर भी क्या किसी देश की विदेशी नागरिक को एक दिन के लिए भी रहने दिया जा सकता है? यह विडंबना है कि आज भी इस व्यापक अवैध घुसपैठ में सरकारी संगठन और व्यवस्था स्वयं आंखों पर पट्टी बांधने को तैयार हैं। चाहे आसाम का करीमगंज हो या बिहार का किशनगंज इनकी जनसंख्या का दबाव व घनत्व स्पष्ट हैं। एक आकलन के अनुसार ये अवैध बंग्लादेशी पूर्वोत्तर भारत के लगभग 20 लोकसभा क्षेत्र तथा 100 विधान सभा क्षेत्रों के चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं। यहां के सामाजिक जीवन को भी ये विदेशी नागरिक प्रदूषित कर रहे हैं। उग्रवादियों से मिलकर वे बड़ी आसानी से पाकिस्तानी मुद्रित भारतीय मुद्रा और हथियार भेजते रहते हैं। सरकार तो इतनी असहाय और मूकदर्शक सी बनी हुई है कि उन्हें विदेशी नागरिकों के अधिनियम के अंतर्गत नोटिस भी नहीं दिए जाते हैं। सरकार की दृष्टि में सीमाबंद करना या बाड़ लगाकर अवैध घुसपैठ की समस्या हल की जा सकती है। पर न राजनैतिक इच्छाशक्ति है और न ही भौगोलिक दृष्टि से सीमा बंद करने का समाधान और इसलिए शायद हम कुछ कर सकेंगे जब तक पानी सिर से ऊपर न हो जाए।

हाल में बंग्लादेश से मुंबई तक के अवैध सफर की प्रक्रि्रया और इस महानगर पर पड़नेवाले संभावित खतरे का आकलन एक सर्वेक्षण में किया गया था। उसी का सारांश देने का प्रयास किया गया है। मुंबई में आनेवाले 90 प्रतिशत से अधिक बंग्लादेशी यहां पहले से रह रहे बंग्लादेशी, उनसे जुड़े दलालों और भ्रष्ट शासन के सहयोग से आकर अपनी रिश्वत देने की क्षमता के कारण राशनकार्ड अथवा पहचान-पत्र आदि बनवाने में भी सफल हो जाते हैं। उनकी प्रारंभिक यात्रा दलालों के संपर्क से जैसे ही वे पश्चिम बंगाल की सीमा में पहुंचते है, हावड़ा स्टेशन से सीधे मुंबई आनेवाली ट्रेनों में सवार होकर थाणे या क्षत्रपति शिवाजी टर्मिनल के लिए रवान होने से शुरू होती है।

मुंबई में रह रहे कई बंग्लादेशियों ने पुलिस को बताया कि दलाल प्रति व्यक्ति 2.5 हजार रूपये लेता है। यह रेट हाल ही में बढ़ा है। पहले दो हजार था। दलाल एक अकेले व्यक्ति की बजाय ज्यादा से ज्यादा लोगों को ले जाना पसंद करता है। ज्यादा लोग ज्यादा दलाली। सात से आठ साल की कम उम्र के बच्चों का कोई पैसा नहीं लगता क्योंकि इनका ट्रेन टिकट नहीं लगता। अपने बार्डर पर यह दलाल पहले बंग्लादेशी राईफल्स को 600 रूपये देता है। इसके बाद हीं बंग्लादेशी बॉर्डर पार करने दिया जाता है। अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर वह इन लोगों को सीमा पार करवाने में कामयाब हो जाता है। भारत में पहुचकर स्थानीय बसों द्वारा ये लोग हावड़ा तक पहुंचते हैं। यहां से ये मुंबई आने वाली ट्रेनों में सवार हो जाते हैं। मुंबई पहुचकर दलाल इन लोगों को ऐसे इलाकों तक पहुंचा देता है जहां पहले से ही बंग्लादेशी मुस्लिम बहुल इलाके में होते हैं। पहले से बसे ये बंग्लादेशी नए आये लोगों को रोजगार दिलवाने में पूरी मदद करते हैं। जिन इलाकों में बंग्लादेशी रहते हैं वहां दलाल नियमित रूप से चक्कर लगाते रहते हैं ताकि जिन्हें वापस जाना हो उनको दलाल आसानी से मिल जाए। बंग्लादेश से मुंबई तक के पूरे सफर के दौरान ये दलाल लगातार इनके साथ ही रहता है। एक और दलाल है जो इनके द्वारा यहां कमाए हुए रूपये इनके घर(बंग्लादेश)तक पहुंचाता है। किसी तरह की मुसीबत पड़ने पर ये दलाल इनके घरों से पैसा यहां तक पहुंचाते हैं। ये पूरा लेन-देन हवाला के जरिए संपन्न होता है। हवाला की जरूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि ये गैर-कानूनी बांग्लादेशी भारत के किसी भी बैंक में खाता नहीं खुलवा सकते। हवाला की प्रक्रिया इतनी मजबूत और तीव्र है कि मुंबई से बंग्लादेश या बंग्लादेश से मुंबई यह पैसा केवल 10 मिनट में पहुंच जाता है।

नई दिल्ली में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ विषय पर कई वर्ष पहले हुए सम्मेलन में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का ध्यान महाराष्ट्र में बढ़ रही बंग्लादेशियों की जनसंख्या की ओर खींचने का पूरा प्रयास किया था ऐसा करते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह हमें आतंकवादी और आई.एस.आई के एजेंटों की गतिविधियों पर पूरा ध्यान देना चाहिए(जो मौका मिलते ही देश की आर्थिक राजधानी को निशाना बनाते हैं) उसी तरह हमें बंग्लादेशियों के मसले को नजर-अंदाज नहीं करना चाहिए। मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार से इस मसले पर गुहार लगाई थी। इसी तरह महाराष्ट्र के पूर्व उप मुख्यमंत्री आर. आर. पाटिल ने भी डांस बारों का बंद कराना जायज ठहराया था और सफाई दी थी कि इन बारों में अधिकांशतः बांग्लादेशी लड़कियां काम करती है। भाजपा चाहती है कि केंद्र सरकार इस समस्या को हल करने हेतु कोई ठोस कदम उठाये हालांकि कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया मिली जुली रही है। कांग्रेस के अधिक तर नेता बांग्लादेशी समस्या से वाकिफ हैं पर कुछ ऐसे नेता भी हैं जिनका मानना है कि इससे पार्टी की छवि अल्पसंख्यकों में खासतौर पर मुसलमानों में खराब होगी।

महाराष्ट्र में बांग्लादेशियों की धरपकड़ सिर्फ सांकेतिक और सतही रही है। यद्यपि उनसे खतरे से वे अवगत हैं। महाराष्ट्र गृह मंत्रालय ने बताया कि वर्ष 2004 में मुंबई में सिर्फ 626 बंग्लादेशी पक ड़े गये थे। स्पेशल ब्रांच के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 सालों में मात्र 5 हजार बांग्लादेशियों को पकड़कर वापस बांग्लादेश भेज दिया गया था। सन् 1995 से 2007 तक मात्र एक हजार के आसपास बांग्लादेशी पकड़े गये थे। इसमें सर्वाधिक संख्या 897 बांग्लादेशियों को 1996 में पकड़ा गया था और न्यूनतम संख्या में 266 को 2001 में पकड़ा था। कुछ समय पहले पुलिस ने भांयखाला स्टेशन से पकड़ा था इसमें से अधिकांश को वे बांग्लादेश लौटाने का दावा करते हैं पर तुरंत बाद उनमें से ही अनेक और दूसरे अनेक बांग्लादेशी बेहिचक फिर मुंबई, ठाणे व पूणे आ जाते हैं।

कुछ प्रसिध्द सक्रिय समाजसेवी हैं, उन्होंने बताया कि इनकी बढ़ती आबादी के खिलाफ सत्ता में कांग्रेस तथा एनसीपी ने आवाज उठाई है। शिवसेना तो समय-समय पर बोलती ही है। बांग्लादेशी उन जगहों को अपना अड्डा बनाते हैं जहां मुसलमान समुदाय की आबादी अधिक होती है। तो क्या इसका मतलब है कि बांग्लादेशियों क ो भारतीय मुसलमान शरण दे रहे हैं? लेकिन यह भी सच है कि लोकशाही में भ्रमों को ज्यादा और सच्चाई को कम महत्व मिलता है। इस बात का बोध हमारे नेता मंत्रियों को सबसे ज्यादा हैं जिस तरह शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे, मनसे नेता राज ठाक रे के साथ मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुंबई में स्वयं बांग्लादेशियों के खिलाफ औपचारिक बयानबाजी करते हैं पर लगता है कुछ करना नहीं चाहते। इनके कारण देश में इनकी भीड़ लगातार बढ़ रही है। हालांकि ऐसा कहीं होता हुआ नजर नहीं आता लेकिन हमारी चिंता करने वाले नेताओं को साफ नजर आता है। ऑफिशियल रिकॉर्ड बताते हैं कि सन् 2004 में 626 बांग्लादेशी मुंबई में थे। मुंबई की 1 करोड़ की आबादी सिर्फ 626 बांग्लादेशी? और नेताओं की मानें तो यह संख्या बहुत ही खतरनाक है। दरअसल, सच्चाई यह है कि बांग्लादेशी तो नहीं लेकिन हमारे भ्रष्ट सरकारी अधिकारी देश के लिए असली खतरा हैं ।

आज मुंबई की सन् 2006 में पश्चिमी रेलवे के सीरियल बम विस्फाेंटों की शृंखला को लोग भूल चुके हैं पर उसमें भी उस समय के समाचार पत्रों में बांग्लादेशी आतंकवादियों की बात उठी थी। 11 जुलाई, 2006 को मुंबई की लोकल ट्रेन में हुए बम विस्फोटों में लगभग 200 लोगों की जान चली गई थी। कहते हैं कि इन विस्फोटों में बांग्लादेशी आतंकवादियों का भी हाथ था। मुंबई पुलिस एंटी-टेरेरिस्ट स्क्वॉयड के प्रमुख के. पी. रघुबंशी ने बताया था कि कई बांग्लादेशी नागरिक कानूनी तौर पर भारत घूमने आते हैं और फिर अचानक गायब हो जाते हैं ओर फिर उनका कोई सुराग नहीं मिलता। इन्होंने यह भी बताया था कि 11 जुलाई बम विस्फोट की तफतीश में पकड़े गए कमल अंसारी और मोहम्मद मजीन ने आतंकवदियों को भारत-बंग्लादेश बॉर्डर पार कराकर मुंबई तक पहुंचाया था। इन्हीं आतंकवादियों का हाथ 11 जुलाई के बम विस्फोटों में भी था।

मुंबई में झोपड़ी का फैलाव एक नासूर है। यहां झोपड़ियों की समस्या इतनी जटिल है कि आजादी के बाद से आज तक कोई भी सरकार इसे खत्म नहीं कर सकी है। ऐसे में गैर-कानूनी तौर पर रह रहे बांग्लादेशियों के लिए झोपड़पटि्टयां फायदे का सौदा साबित होता है। जिन लोगों ने सरकारी और निजी जमीन पर कब्जा करके 1995 से पहले झोपड़ियां बनाई थी उन लोगों को वहां से हटाकर सरकार पुनर्वसन करने की तैयारी में रहती है। इन जगहों पर एक बड़ा प्रतिशत बांग्लादेशी रहता है। गैर-कानूनी ढंग से रहने वाले बांग्लादेशियों के जिन ठिकानों पर छापे पड़े थे उनमें डोंगरी, पायधुनी, मस्जिद रोड, चीता कैं प, ट्रांबे, लालभाटी और वडाला मुख्य थे पर हाल में नए दर्जनों स्थानों का नाम भी लिया जा रहा हैं। जिनमें उत्तर-पूर्वी मुंबई के एकता नगर, चिखलवाड़ी, साईबाबा नगर, गोंवडी और मानखुर्द भी है।

केंद्र जानता है कि जो स्थिति मुंबई में है, अवैध बांग्लादेशी कि उपस्थिति दूसरे प्रांतों में उससे कहीं बुरी है। भारत और बांग्लादेशी के बीच करीब 1600 कि. मी. की खुली सीमा है। समुद्री सीमा भी बांग्लादेश के साथ लगती है। बांग्लादेश के अलावा पश्चिम में बंगाल की सीमा नेपाल, भूटान और सिक्किम से भी सटी हुई है। उत्तर पूर्व के भारत विरोधी तत्वों को हथियार प्राप्त करने के लिए यह सुरक्षित अभयारण्य है। इस चौराहे पर पशु तस्कर, आई. एस. आई. एजेंट, हथियारों के सौदागर, मादक पदार्थों और जाली नोटों के तस्कारों के साथ-साथ आतंकवादियों की सरगर्मी भी चलती रहती है। बिहार, नेपाल सीमा के दोनों ओर मुस्लिम जनसांख्यिक दबाव स्पष्ट है और रक्सौल, जयनगर, निर्मली, पूर्णिया, किशनगंज तथा जोगबनी, अटरिया, कटिहार आदि जगह में नए मुस्लिम पाकेट बन चुके हैं। वहां के स्थानीय प्रशासन द्वारा स्वीकार किया जा चुका हैं कि वहां कुल 15 लाख बंग्लादेशी मुसलमान बस गए हैं। उनके संबंध महानगरों के कई आपराधिक संगठनों से भी जुड़ते जा रहे हैं। एक ओर तुष्टीकरण की नीति तो दूसरी ओर वोटबैंक की लोलुपता ने आज भी राजनीतिबाजों की आंखों पर पटि्टयां बांध दी हैं।

और ऐसे सिमट गया भारत

प्राचीन भारत की सीमाएं विश्व में दूर-दूर तक फैली हुई थीं। भारत ने राजनैतिक आक्रमण तो कहीं नहीं किए परंतु सांस्कृतिक दिग्विजय अभियान के लिए भारतीय मनीषी विश्वभर में गए। शायद इसीलिए भारतीय संस्कृति और सभ्यता के चिन्ह विश्व के लगभग सभी देशों में मिलते हैं।

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि सांस्कृतिक और राजनैतिक रूप से भारत का विस्तार ईरान से लेकर बर्मा तक रहा था। भारत ने संभवत विश्व में सबसे अधिक सांस्कृतिक और राजनैतिक आक्रमणों का सामना किया है। इन आक्रमणों के बावजूद भारतीय संस्कृति आज भी मौजूद है। लेकिन इन आक्रमणों के कारण भारत की सीमाएं सिकुड़ती गईं। सीमाओं के इस संकुचन का संक्षिप्त इतिहास यहां प्रस्तुत है।

ईरान – ईरान में आर्य संस्कृति का उद्भव 2000 ई. पू. उस वक्त हुआ जब ब्लूचिस्तान के मार्ग से आर्य ईरान पहुंचे और अपनी सभ्यता व संस्कृति का प्रचार वहां किया। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम आर्याना पड़ा। 644 ई. में अरबों ने ईरान पर आक्रमण कर उसे जीत लिया।

कम्बोडिया – प्रथम शताब्दी में कौंडिन्य नामक एक ब्राह्मण ने हिन्दचीन में हिन्दू राज्य की स्थापना की।

वियतनाम – वियतनाम का पुराना नाम चम्पा था। दूसरी शताब्दी में स्थापित चम्पा भारतीय संस्कृति का प्रमुख केंद्र था। यहां के चम लोगों ने भारतीय धर्म, भाषा, सभ्यता ग्रहण की थी। 1825 में चम्पा के महान हिन्दू राज्य का अन्त हुआ।

मलेशिया – प्रथम शताब्दी में साहसी भारतीयों ने मलेशिया पहुंचकर वहां के निवासियों को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से परिचित करवाया। कालान्तर में मलेशिया में शैव, वैष्णव तथा बौद्ध धर्म का प्रचलन हो गया। 1948 में अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो यह सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य बना।

इण्डोनेशिया – इण्डोनिशिया किसी समय में भारत का एक सम्पन्न राज्य था। आज इण्डोनेशिया में बाली द्वीप को छोड़कर शेष सभी द्वीपों पर मुसलमान बहुसंख्यक हैं। फिर भी हिन्दू देवी-देवताओं से यहां का जनमानस आज भी परंपराओं के माधयम से जुड़ा है।

फिलीपींस – फिलीपींस में किसी समय भारतीय संस्कृति का पूर्ण प्रभाव था पर 15वीं शताब्दी में मुसलमानों ने आक्रमण कर वहां आधिपत्य जमा लिया। आज भी फिलीपींस में कुछ हिन्दू रीति-रिवाज प्रचलित हैं।

अफगानिस्तान – अफगानिस्तान 350 इ.पू. तक भारत का एक अंग था। सातवीं शताब्दी में इस्लाम के आगमन के बाद अफगानिस्तान धीरे-धीरे राजनीतिक और बाद में सांस्कृतिक रूप से भारत से अलग हो गया।

नेपाल – विश्व का एक मात्र हिन्दू राज्य है, जिसका एकीकरण गोरखा राजा ने 1769 ई. में किया था। पूर्व में यह प्राय: भारतीय राज्यों का ही अंग रहा।

भूटान – प्राचीन काल में भूटान भद्र देश के नाम से जाना जाता था। 8 अगस्त 1949 में भारत-भूटान संधि हुई जिससे स्वतंत्र प्रभुता सम्पन्न भूटान की पहचान बनी।

तिब्बत – तिब्बत का उल्लेख हमारे ग्रन्थों में त्रिविष्टप के नाम से आता है। यहां बौद्ध धर्म का प्रचार चौथी शताब्दी में शुरू हुआ। तिब्बत प्राचीन भारत के सांस्कृतिक प्रभाव क्षेत्र में था। भारतीय शासकों की अदूरदर्शिता के कारण चीन ने 1957 में तिब्बत पर कब्जा कर लिया।

श्रीलंका – श्रीलंका का प्राचीन नाम ताम्रपर्णी था। श्रीलंका भारत का प्रमुख अंग था। 1505 में पुर्तगाली, 1606 में डच और 1795 में अंग्रेजों ने लंका

पर अधिकार किया। 1935 ई. में अंग्रेजों ने लंका को भारत से अलग कर दिया।

म्यांमार (बर्मा) – अराकान की अनुश्रुतियों के अनुसार यहां का प्रथम राजा वाराणसी का एक राजकुमार था। 1852 में अंग्रेजों का बर्मा पर अधिकार हो गया। 1937 में भारत से इसे अलग कर दिया गया।

पाकिस्तान - 15 अगस्त, 1947 के पहले पाकिस्तान भारत का एक अंग था।

बांग्लादेश – बांग्लादेश भी 15 अगस्त 1947 के पहले भारत का अंग था। देश विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान के रूप में यह भारत से अलग हो गया। 1971 में यह पाकिस्तान से भी अलग हो गया।