शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

भारत के सरदार

इतिहासकार अक्टूबर की 31 तारीख को सरदार पटेल के जन्मदिवस के रूप में याद रखते हैं। बाद में इसमें इंदिरा गांधी की हत्या का अवसाद भी जुड़ गया। आगामी 31 अक्टूबर को सरदार पटेल की 135वीं जयंती है और वर्ष 2010 उनकी 60 पुण्यतिथि का वर्ष भी है। आज ऐसे लोग ज्यादा नहीं होंगे, जिन्होंने सरदार पटेल को देखा था।

अगर होंगे भी, जैसे डॉ कर्ण सिंह, तो उनकी उम्र 80 या 90 के ऊपर होगी। हम इफरात से जन्मशतियां मनाते हैं, लेकिन 1975 में सरदार पटेल की जन्मशती तकरीबन चुपचाप गुजर गई। वजह आपातकाल। लेकिन बौद्धिक जड़ता भी एक वजह रही, जो मनुष्य की याददाश्त पर परदा डाल देती है। जड़ता ही नहीं, भाई-भतीजावाद भी।

अक्टूबर माह और वर्ष २क्१क् एक अवसर है कि हम सरदार पटेल का सही आकलन करें, जिनके बारे में राजेंद्र प्रसाद ने कहा था : ‘आज हम जिस भारत के बारे में सोचते और बात करते हैं, उसके निर्माण में सरदार पटेल के राजनीतिक कौशल और प्रशासनिक दृढ़ता का अहम योगदान है।’ पटेल का राजनीतिक जीवन चार दशक लंबा था, लेकिन उनकी ‘प्रशासनिक दृढ़ता’ की अवधि चार वर्ष से अधिक नहीं है।

इसके बावजूद उन चार सालों में भारत निर्माण के लिए जो काम किया गया, वह बाद के सालों में इतनी अवधि में फिर कभी नहीं किया जा सका। सरदार पटेल के जीवन के अंतिम वर्ष १९५क् पर एक नजर डालते हैं। उनके पास दो मंत्रालय थे : गृह और सूचना प्रसारण। साथ ही वे रियासतों के विलय का काम भी देख रहे थे। पटेल के पास जो मंत्रालय थे, वे आज चिदंबरम और अंबिका सोनी के पास हैं, लेकिन फर्क यह है कि पटेल देश के उप प्रधानमंत्री भी थे। फर्क यह भी है कि वे सरदार वल्लभभाई पटेल थे।

जवाहरलाल नेहरू से राजनीतिक मतभेदों में पटेल हावी रहते थे। कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पटेल के उम्मीदवार पुरुषोत्तमदास टंडन ने नेहरू समर्थित उम्मीदवार आचार्य कृपलानी को हराया था। राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने कांग्रेस की भावना के अनुरूप राजेंद्र प्रसाद का समर्थन किया और वे ही राष्ट्रपति बने, जबकि नेहरू इस पद पर राजगोपालाचारी को चाहते थे।

राजनीतिक तौर पर देश का एकीकरण करने वाले सरदार पटेल को राष्ट्रीय नायक का दर्जा प्राप्त है। प्रशासनिक तौर पर उन्हें उनकी निर्णय लेने की क्षमता और मितभाषिता के लिए याद रखा जाता है। निजी तौर पर उनकी एकाग्रता और दृढ़ता के लिए उनका सम्मान किया जाता है। उन्हें देखकर हमेशा मन में एक विश्वास पैदा होता था।

यह विश्वास कि देश उनके हाथों में सुरक्षित है। विभिन्न उच्च न्यायालयों के आदेश के तहत देशभर में लगभग दो हजार कम्युनिस्टों की रिहाई के बाद उन्होंने संसद में जो कहा, हम कल्पना कर सकते हैं कि नक्सल समस्या के संबंध में हमारे वर्तमान गृह मंत्री भी वही कहते : ‘हमारी लड़ाई कम्युनिस्टों से नहीं, उन लोगों से है जो विधि द्वारा स्थापित शासन को हिंसा के जरिए उखाड़ फेंकना चाहते हैं.. बहुजन की नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कुछ लोगों की आपराधिक स्वतंत्रता में कतरब्योंत जरूरी है।’

सरदार पटेल की भौगोलिक समझ का कोई सानी नहीं था। १९५क् के उत्तरार्ध में जब तिब्बत में चीन की कारगुजारियां उजागर हुईं, तो उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखा : ‘भारत के रक्षा तंत्र को दो मोर्चो पर एक साथ ध्यान केंद्रित करना होगा। पाकिस्तान के अलावा हमें उत्तर और उत्तरपूर्व में कम्युनिस्ट चीन पर भी नजर रखनी होगी।’ यह आज भी प्रासंगिक है।

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